मीडिया के फेफड़े, किडनी, आंखें… ‘संक्रमित’ हो गईं हैं- श्रवण गर्ग

कोविड महामारी ने मीडिया की चमड़ी में अंदर तक छेद कर दिया। कोविड ने मीडिया की चमड़ी उधेड़ कर रख दी। ये साफ हो गया कि मीडिया की चमड़ी में अंदर से क्या है। कोरोना ने इंसानों का फेफड़ा, किडनी और आंखों तक असर डाला, ये बात सच है। उससे कहीं ज्यादा सच ये है कि कोविड ने मीडिया का फेफड़ा, किडनी और आंखों के ख़राब होने का प्रमाण भी दे दिया। मीडिया तो मानो ब्लैक फंगस से ग्रसित हो चुका है। ये बात विनय तरुण स्मृति व्याख्यानमाला की बारहवीं कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्रवण गर्ग ने कही।

श्रवण गर्ग ने कहा- आपदाएं युद्ध तो होती हैं, पर युद्ध और आपदा में फर्क होता है। युद्ध, आपदा, महामारी, भूकंप, बाढ़, बादल फटना जैसे तमाम मौके होते हैं, जब एक राष्ट्र के रूप में हमारी क्षमताएं उजागर होती हैं। एक नागरिक के नाते हमारी क्षमताएं उजागर होती हैं, संवेदनाएं उजागर होती हैं। ‘कोविड महामारी- संवेदनाओं का लॉकडाउन और पत्रकारिता’ विषय पर व्याख्यान के क्रम में श्रवण गर्ग ने सरकारों की संवेदनशीलता का सवाल उठाया, पत्रकारों की संवेदनशीलता का सवाल उठाया। श्रवण गर्ग ने संवेदनाओं को कुरेदने वाले सवाल उठाए- युद्ध के दौरान कमजोरियां सामने नहीं लाते, पर यही काम हमने आपदा के दौरान क्यों किया? युद्ध के दौरान गोला-बारूद की कमी हम नहीं बताते, यही काम हमने अस्पतालों में बेड, दवा और ऑक्सीजन की कमी के दौरान क्यों किया? युद्ध के दौरान हम सैनिकों की शहादत का सही आंकड़ा नहीं देते, यही काम हमने कोरोना से हुई मौतों को लेकर क्यों किया? युद्ध में हम हार को जीत बताते हैं, यही काम हमने कोविड से चल रही जंग के दौरान क्यों किया?

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों की संस्था दस्तक की ओर से आयोजित इस ऑनलाइन कार्यक्रम में श्रवण गर्ग ने कहा- पत्रकारों का ‘देशभक्त’ हो जाना तो ठीक है पर सवाल-शून्य हो जाना चिंता की बात है। उन्होंने कहा- सरकारें तथ्य छिपाने की कोशिश करती हैं, तो समझ में आता है… पर मीडिया ये काम क्यों कर रहा है? मीडिया का तथ्य छिपाने के पीछे मकसद क्या है? मीडिया की संवेदनशीलता ऐसे मौके पर कहां खो गई? मीडिया ने क्यों नहीं पूछा- तब्लीगी जमात की भीड़ से कोरोना फैलता है तो कुंभ की भीड़ से क्यों नहीं फैलेगा? मीडिया ने क्यों नहीं पूछा- बंगाल चुनाव में क्यों रोड शो, रैलियों में भीड़ जुटाई गई? मीडिया ने सांप्रदायिक ताकतों की मनचाही भूमिका क्यों अख्तियार कर ली? क्यों मुसलमानों को शर्मिंदा करने वाला एजेंडा चलाया गया? मीडिया सांप्रदायिक ताकतों का पार्टनर क्यों बन गया? कोरोना के संक्रमण पर तब्लीगी जमात से सवाल किए गए तो मठ-अखाड़ों को क्यों नहीं कठघरे में खड़ा किया गया? उन्होंने अपनी बात एक शेर के साथ समाप्त की… शमां हर रंग में जलती है, सहर होने तक….।

कार्यक्रम की शुरुआत में इंदू सारस्वत ने विनय तरुण से जुड़ी स्मृतियां साझा कीं। इंदू सारस्वत ने कोविड काल के दौरान खोए गुरुजनों कमल दीक्षित और देविंन्दर कौर उप्पल को भी याद किया। इंदू ने बताया कि उप्पल मैम ने कैसे छात्रों में आलोचनात्मक नजरिया विकसित किया, विकास को देखने की अपनी दृष्टि दी। उप्पल मैम ने जेंडर सेंसिटिव समाज के निर्माण में भी अहम भूमिका निभाई। वरिष्ठ पत्रकार साथी अनुराग द्वारी ने ‘संकट काल में हमारा मैं और रिश्तों की दस्तक’ विषय पर बातचीत की। कबीर के दोहे- जब मैं था, तब हरि नहीं, जब हरि हैं तब मैं नाहीं। – से अपनी बात शुरू की। ये हरि अलग-अलग रूपों में सामने होते हैं… और इस हरि में ही हमारे रिश्ते, हमारा प्रेम है। अनुराग ने बताया कि महामारी ये सिखा गई-मैं से बाहर निकलना क्यों जरूरी है। माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंदे मोये से लेकर माटी का तन, मस्ती का मन… क्षण भर जीवन मेरा परिचय… मन के सहज सुरीले प्रवाह से अनुराग ने मैं से हम तक की यात्रा करा दी।

दस्तक के साथियों ने कार्यक्रम का खाका इस कदर बुना कि माखनलाल के युवा साथियों से भी संवाद हो, उनकी पत्रकारीय और वैचारिक यात्रा का एहसास हो, साझापन बने। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा और पत्रकार साथी प्रियंका दुबे ने सुबह करीब 11.35 पर बातचीत शुरू की। प्रियंका दुबे ने सोशल मीडिया और ज़मीनी पत्रकारिता की चुनौतियों पर अपने अनुभव साझा किए। प्रियंका ने सोशल मीडिया के सेलेब्रिटीज और ग्राउंड रिपोर्टिंग के हीरो के बीच का द्वंद्व सामने रखा। उन्होंने कहा-ग्राउंड रिपोर्टर्स ख़बर देते हैं और शहर में बैठे पत्रकार साथी उसका नैरेटिव गढ़ते हैं। कई बार ग्राउंड रिपोर्ट्स को उनका क्रेडिट तक नहीं दिया जाता। प्रियंका ने इस बात पर जोर दिया कि ग्राउंड रिपोर्टिंग का कोई विकल्प नहीं है और ग्राउंड रिपोर्ट्स को हर हाल में उनका क्रेडिट दिया जाना चाहिए। प्रियंका ने सहजता से एक बड़ी बात कह दी-सबसे जरूरी है एक बेहतर इंसान बनने की सतत कोशिश।

कार्यक्रम के औपचारिक सत्रों में आखिरी संवाद पीयूष बबेले ने ‘तथ्यमुक्त पत्रकारिता के खतरे’ विषय पर किया। पीय़ूष ने ट्वीटर पर आई ‘विज्ञप्तियों’ पर समाचार गढ़ने की बढ़ती प्रवृति पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा- ऐसे बयानों की पुष्टि के बगैर खबर लिखने की हड़बड़ी चिंताजनक है। उन्होंने कहा कि ‘कॉमन सेंस’ को दरकिनार कर खबरें लिखी जा रही हैं, प्रसारित की जा रही हैं। पीयूष ने पत्रकारों को ‘डेमोक्रेसी के कुत्ते’ वाली भूमिका में देखने की ख्वाहिश जाहिर की, उसकी जरूरत बताई। पत्रकार पुलिस, जज या सरकार नहीं है, वो तथ्यों को सहेज कर सवाल उठाने की भूमिका में होता है और इस भूमिका के लिए पत्रकार पर अनावश्यक दबाव वाली नीति ठीक नहीं। सरल शब्दों में उन्होंने कहा – सरकार जनता के नौकर की भूमिका में है, विपक्ष नौकरी से निकाले गए नौकर की भूमिका में है। सवाल तो तो उसी से होंगे जो फिलवक्त नौकरी में है। समाज में घर्षण बनाए रखने की जिम्मेदारी पत्रकारों की है, समाज में प्रतिरोध बनाए रखऩे की जिम्मेदारी पत्रकारों की है। समाज में सवालों को बनाए रखने की जिम्मेदारी पत्रकारों की है। उन्होंने अपनी बात इस नसीहत के साथ खत्म की- निंदक नियरे राखिए।

विनय तरुण स्मृति व्याख्यान की 12वीं कड़ी का संचालन दस्तक के साथी सचिन श्रीवास्तव ने किया। 27 जून की सुबह 11 बजे बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ जो दोपहर 1.30 बजे तक चलता रहा। पशुपति शर्मा ने दस्तक के साथियों की कोशिशों से विनय तरुण स्मृति की निरंतरता का खाका सामने रखा। पुष्यमित्र ने तमाम वक्ताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया और ऐसे संवादों को जारी रखने की आवश्यकता को रेखांकित किया

रिपोर्ट- पशुपति शर्मा