वाइब्रन्ट गुजरात के दावों में कितना फसाना?

वाइब्रन्ट गुजरात के दावों में कितना फसाना?

ब्रह्मानंद ठाकुर

वाइब्रन्ट गुजरात ! मानो देश में अगर किसी राज्य में स्वर्ग है तो वह गुजरात में है। देश का अगर विकास होगा तो गुजरात के नक्शे कदम पर। विकास का एक आधुनिक और अनोखा मॉडल जिसे देश के सभी राज्यों मे लागू किए जाने की जरूरत बताती हुई खबरें पिछले तीन सालों से मीडिया की सुर्खियां बनती रही हैं। क्या सच में वहां ऐसा कुछ है? आइए जानते हैं वाइब्रेंट गुजरात का सच। खुद गुजरात सरकार की साल 2003 से 2011 तक की सामाजिक-आर्थिक समीक्षा की रिपोर्ट के जरिए।

पहले हम संक्षिप्त चर्चा गुजरात राज्य की स्थापना पर करते हैं। राज्य पुनर्गठन आयोग की अनुशंसा के आधार पर 1960 में गुजरात राज्य की स्थापना हुई थी और डॉक्टर जीवनारायण मेहता इसके पहले मुख्यमंत्री बने। गुजरात का स्थापना दिवस 1 मई है। हमारे देश के प्रधान सेवक माननीय नरेन्द्र मोदी 22 दिसम्बर 2002 से 21 मई 2014 तक यहां के मुख्यमंत्री रहे। उस दौरान वाइब्रन्ट गुजरात की 6 परिषदों की बैठकें हुईं। पहली परिषद 2003 में हुई। इसके बाद 2005 , 2007, 2009 , 2011 और 2013 में भी बैठकें हुईं और इन सभी बैठकों में गुजरात समेत देश और विदेशों के उद्योगपतियों और कम्पनियों के प्रतिनिथियों ने हिस्सा लिया था। इन बैठकों में गुजरात सरकार के साथ कौन-सी वस्तु या सेवा पर जोर दिया जाय और इसके लिए कितनी राशि का निवेश किया जाए इस पर विस्तार से चर्चा हुई और समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए गये। सामाजिक-आर्थिक समीक्षा के आंकडे बताते हैं कि कम्पनियों और उद्योगपतियों ने दिल खोल कर पूंजी निवेश करने का वचन दिया। गुजरात में 2003 की तुलना में 2011 में तीन सौ प्रतिशत से भी ज्यादा पूंजी निवेश किए जाने के एमओयू (समझौता पत्र) पर हस्ताक्षर हुए।

अब सवाल है कि जितने पूंजी निवेश की बात की गयी थी , उतना हुआ भी या नहीं। आंकड़ों के मुताबिक साल 2003 में 66.068 करोड़ रूपये के पूंजी निवेश के वचन के विरुद्ध 30.746 करोड़ रूपये का ही निवेश हुआ जो एमओयू का 57.13 प्रतिशत होता है। बाद के सालों में इसमें लगातार कमी होती गयी।
2005 के वाइब्रेंट गुजरात परिषद की बैठक में 1, 06, 160 करोड़ रूपये के पूंजी निवेश का एमओयू साईन हुआ और पूंजी निवेश हुआ मात्र 37 .939 करोड जो एमओयू का 35.74 प्रतिशत है। 2007 मे 4लाख 65हजार 309 करोड़ रूपये पूंजी निवेश का समझौता हुआ जबकि पूंजी निवेश हुआ मात्र 1लाख 07 हजार 897 करोड़ रूपये। इसी तरह 2009 में 12 लाख 39 हजार 562 करोड़ पूंजीनिवेश के वचन के विरूद्ध 1 लाख 4 हजार 590 करोड़ का पूंजी निवेश किया गया । यह एमओयू का 8.44फीसदी है। हद तो तब हो गयी जब 2011 की वाइब्रेन्ट गुजरात परिषद की बैठक में पिछली चार बैठकों की अपेक्षा सबसे अधिक ( 20 लाख 83 हजार 047 करोड रूपये ) के पूंजी निवेश के लिए समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए गये जबकि असल में पूंजी निवेश हुआ मात्र 29 हजार 813 करोड़ रूपये का जो कुल एमओयू का 1.43 प्रतिशत है।

इन आंकड़ों से यह बात साफ हो जाती है कि पूंजी निवेश के लिए मात्र एमओयू को आधार बना कर ही जिस तरह से गुजरात के विकास का डंका बजाया जा रहा है, वह वास्तविकता से कोसों दूर है। एमओयू साईन मात्र कर देने से ही उद्योगपति या कम्पनी पूंजीनिवेश के लिए बाध्य नहीं हो जाते। वह पहले अपना मुनाफा देखते हैं। मुनाफा होगा तभी वह पूंजीनिवेश करेंगे अन्यथा नहीं भी कर सकते हैं। 2003 से लेकर 2011 तक किए गये समझौता और वास्तविक पूंजी निवेश में लगातार कमी के ये आंकडे यही बताते हैं कि सुनियोजित तरीके से कम्पनियों और उद्योगपतियों से एमओयू साईन तो करा लिया गया लेकिन उस अनुपात में पूंजीनिवेश नहीं हो पाया।

अब कुछ चर्चा गुजरात में रोजगार की। वाइब्रेन्ट गुजरात की पांच बैठकों के दौरान जितने पूंजीनिवेश पर सहमति बनी थी ,उसी आधार पर इस बात का भी जोर शोर से प्रचार शुरू किया गया कि इससे राज्य के 1.02करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा। करीब 6 करोड़ की आबादी वाले गुजरात के 25फीसदी (1.02करोड़) लोगों को रोजगार मिल जाए तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। और  सचमुच यदि ऐसा हुआ होता तो गुजरात एक रोल मॉडल राज्य बन गया होता लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जिस तरह वाइब्रेन्ट गुजरात में पूंजी निवेश के वादे पूरे नहीं हो पाये वैसे ही रोजगार के दावे भी गलत साबित हुए। आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2012 तक जितना पूंजी निवेश हुआ उसमें 2.99लाख लोगों को ही रोजगार मिला। शेष पूंजी निवेश के बाद 2.70 लाख लोगों को रोजगार मिला। इसके बाद 2.70 लाख और लोगों को रोजगार मिलने की बात कही गयी थी । इस दावे को यदि मान लिया जाए तो कुल 5.69 लाख लोगों को उस अवधि में रोजगार मिला। दावा कहां 1.02 करोड़ के रोजगार का और मिला सिर्फ 5.69 लाख लोगों को।

गुजरात औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्य तो माना जाता है लेकिन यहां मानव विकास काफी कम हुआ है। भारत के योजना आयोग ने इण्डिया ह्युमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2011 प्रकाशित किया था ,उसमें गुजरात के बारे में अनेक जानकारियां दी गयी थीं। उसके अनुसार साल 1999–2000 में मानव विकास की दृष्टि से देश में गुजरात का स्थान 10वां था जो 2007-8 में 11वां हो गया। इस अवधि में मानव विकास के मामले में उत्तर प्रदेश ,बिहार ,छत्तीसगढ ,मध्यप्रदेश ,उडीसा और झाडखंड राज्य गुजरात से आगे थे। मानव विकास में प्रतिव्यक्ति आमदनी महत्वपूर्ण होती है। इस लिहाज से 1999-2000 से लेकर 2007-2008 की अवधि में गुजरात का क्रम 15वां था। साक्षरता दर और बच्चे कितने साल स्कूल में पढते हैं उसके आधार पर जो अंक निकाले गये , उसमें गुजरात का स्थान नीचे से तीसरा था।इसमें केवल गोली और दिल्ली ही गुजरात से पीछे थे।

साल 2013 में गुजरात की नरेन्द्रमोदी सरकार ने सिंचाई और जल निकासी विषयक एक कानून विधान सभा में पारित किया। उस कानून में 60 धारायें हैं। 1879 में अंग्रेजों ने जो कानून बनाए थे, उसी के स्थान पर यह नया क़ानून बना। गुजरात की छह करोड़ जनता को पानी विषयक गुलामी की ओर ले जाने वाला यह कानून किसानों और पशुपालकों को परेशानी में डालने वाला था। इस कानून के लागू हो जाने के बाद पानी के स्वामित्व और उपयोग पर सरकार का एकाधिकार हो गया । नहर अधिकारी को यह अधिकार दे दिया गया कि वह किसी भी जमीन या मिल्कियत में उसके मालिक की अनुमति के बिना प्रवेश कर किसी भी नहर को बंद कर सकता है। सरकार जब चाहे किसी भी नहर या जलाशय के पानी का उपयोग बदल सकती है , या अपनी मर्जी से उसका उपयोग कर सकती है। भले ही वह नहर सिंचाई के लिए बनाई गयी क्यों न हो , सरकार उसके पानी का उपयोग उद्योगों के लिए कर सकती है। नहर अधिकारी पानी के स्वाभाविक बहाव के रास्ते को अवरूद्ध करने वाले छोटे बांध ,या वाटरशेड को तोड़वा सकता है। जाहिर है इससे किसानों का ही अहित होगा क्योंकि पानी के स्वाभाविक बहाव में अवरोध पैदा करके ही सिंचाई या अन्य जरूरी काम के लिए लोग जल संग्रह करते हैं। अब यदि उद्योगों को ही पानी उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिकता हो जाए तो किसान करे तो क्या करें। इस कानून की धारा 34 एवं धारा 35 में यह प्रावधान है कि किसी नहर से 200 मीटर की दूरी पर यदि कुआं या तालाब हो और उसमें पानी हो तो उसे नहर से नि:सृत पानी मान कर किसानों से नहर द्वारा की गयी सिंचाई मानते हुए शुल्क वसूला जाएगा। इस कानून में यह भी प्रावधान है कि अब किसान को अपना कुआं या बोरिंग कराने के लिए सरकार से पंजीयन कराना होगा। कभी यदि उसकी गहराई बढानी हो तो उसके लिए भी सरकार से लाइसेन्स लेना होगा। नहर अधिकारी उसे सील भी कर सकता है।


brahmanand

ब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।