हमारा शिक्षा तंत्र और कबीर की उलटबांसी

हमारा शिक्षा तंत्र और कबीर की उलटबांसी

ब्रह्मानंद ठाकुर

आज शिक्षक दिवस है। मैं शिक्षक रहा हूं और सरकार, प्रशासन और समाज द्वारा शिक्षकों के प्रति जो उपेक्षात्मक भाव रहा है, उसे काफी निकट से देखा है। कुछ यही कारण है कि वर्तमान सामाजिक,  आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भों में मैं शिक्षक दिवस को अलग रूप में देखता हूं। सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। वे महान राष्ट्र भक्त और आदर्श शिक्षक थे। स्वाभाविक है कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए। मनाया जाता भी है। इससे पहले यदि हम देखें तो हमारे इस महान राष्ट्र में गुरु को गोविंद से ऊपर माना गया है क्योंकि वह गुरू ही हैं जो गोविंद तक पहुंचने की राह बताते हैं।

गुरु का अर्थ ही है अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाला। आधुनिक संदर्भों में गुरु से मेरा आशय है ऐसा शिक्षक जो अपने छात्र को नैतिक पतन, अपसंस्कृति, खुदगर्जी, अन्याय, अत्याचार और शोषण से मुक्ति का सही रास्ता दिखा सके। मतलब साफ है कि यह काम आसान नहीं है, क्योंकि जो व्यवस्था है उसमें नैतिक और सांस्कृतिक पतन की गहरी जड़ें हैं। लिहाजा आज की मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था ने शिक्षक को मात्र एक चाकर बना कर रख दिया है। एक ऐसा चाकर जो शिक्षण कार्यों में काफी कम समय दे और उसे अन्य गैर-शैक्षणिक कार्यों मे उलझा कर रख दिया जाय।

यहां मुझे कबीर की उलटबांसी याद आ जाती है। ‘मेरे गुरु ने मंगायो वेदन भेद /पहली भिक्षा अन्न की लाना /गांव नगरिया पास न जाना /लाना झोली भरके। ‘अजीब बात  हुई ! भिक्षा अन्न की झोली भर कर लानी है और गांव ,नगर के पास भी फटकने की मनाही हो गयी। कैसे हो आदेश का पालन ?  यही हाल आज शिक्षकों का है। चालू शैक्षणिक सत्र के 6 माह बीत रहे हैं और सूबे के प्राथमिक और मिड्ल स्कूलों में पढने वाले 1.10 करोड़ बच्चों को पाठ्य पुस्तकें सरकार ने अब तक उपलब्ध नहीं कराई है। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा है और  छात्र अगर अच्छा परफॉर्म नहीं करते तो उसके लिए शिक्षक जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। शिक्षक दिवस पर इस पर भी सोचने की जरूरत है।

शिक्षकों की एक बड़ी समस्या है समय से वेतन भुगतान न होने की। एक शिक्षक बता रहे थे कि उन लोगों को  इस साल जनवरी, फरवरी और मार्च का वेतन अब तक नहीं मिला है। जुलाई और अगस्त का वेतन भी बकाया है। वेतन भुगतान के मामले में प्राय: यही स्थिति रहती है। अगर  निष्पक्ष भाव से देखा जाए तो हमारा शिक्षक समुदाय जिसे कभी समाज और सत्ता दोनों ने सम्मान और अधिकार प्रदान किया था , आज उससे पूरी तरह वंचित हो गया है। आज शिक्षकों के सम्मान का अवमूल्यन हो चुका है। मुझे एक शिक्षक होने के नाते यह कहने में कोई हिचक नहीं कि समाज में आज शिक्षक के सम्मान का अवमूल्यन हो गया है। यह स्थिति अनायास पैदा  नहीं हुई है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था वैसे ही प्रयोगधर्मा रही है। अकेले शिक्षा के क्षेत्र में जितने प्रयोग किए गये , उतने अन्य किसी क्षेत्र में नहीं हुए। शिक्षा के ताबूत में आखिरी कील साबित हुई शिक्षक नियोजन की प्रक्रिया। प्राथमिक, मिड्ल और हाई स्कूलों के लिए अलग-अलग नियोजन ईकाई का गठन किया गया। हाई स्कूल के लिए जिला परिषद , मिड्ल स्कूल के लिए पंचायत समिति और प्राइमरी स्कूल के लिए पंचायत को नियोजन इकाई बनाया गया। यह सर्व विदित है कि इन नियोजन ईकाईयों ने शिक्षक नियोजन मे काफी धांधली की ।योग्यता को नजर अंदाज करते हुए अपने सगे सम्बंधियों  को शिक्षक पद पर बहाल कर दिया।  कहीं कोई शिकायत सुनने वाला नहीं। नियमित वेतनमान वाले शिक्षक ज्यों-ज्यों सेवानिवृत होते गये , उनका पद सरकार ने समाप्त कर दिया। इस दोषपूर्ण प्रक्रिया के कारण पूरी शिक्षा व्यवस्था चौपट हो गयी ।  शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था के प्रति संवेदनशील लोगों के लिए शिक्षक दिवस पर इस पर भी गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है।

1986 में जब वैश्वीकरण के प्रभाव में नयी शिक्षा नीति लागू हुई, उससे पहले तक देश की शिक्षा व्यवस्था बहुत कुछ पटरी पर ही चल रही थी। सरकारी स्कूलों  में पढाई का स्तर बेहतर था। निजी विद्यालयों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती थीं। 1986 की शिक्षानीति के जरिए सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव किया गया। शिक्षा को पूंजीपतियों के पूंजीनिवेश का अनोखा क्षेत्र मानते हुए निजी विद्यालय खोलने की राह आसान कर दी गयी। सरकार ने बड़ी चालाकी से शिक्षा पर खर्च कम करने के उद्देश्य से कम वेतन पर कांट्रैक्ट शिक्षक के नियोजन की व्यवस्था लागू कर दी। इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई और इसका ठीकरा शिक्षकों के सिर फोड़ा जाने लगा। जैसे सारी शैक्षिक कुव्यवस्था की जड़ यही शिक्षक समुदाय हों। आम आदमी, सरकार के इस षढयंत्र को समझ नहीं सका और वह भी इसके लिए शिक्षक को दोषी ठहराने लगा।

2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ और शिक्षा को  मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया गया। इस अधिनियम में यह प्रावधान किया गया कि प्राथमिक स्तर पर एक शिक्षक पर  30 छात्र और मिड्ल स्कूलों में एक शिक्षक पर 35 छात्रों के अनुपात का हर हाल में पालन किया जाएगा। इसके लिए अधिकतम समय सीमा 2013 निर्धारित कर दी गयी। यानि 2013  तक प्राथमिक स्कूलों में 30 छात्र पर एक और मिड्ल स्कूलों मे 35 छात्रों पर एक शिक्षक  का अनुपात हासिल कर लिया जाना था। इसके अतिरिक्त 2015 तक सभी अप्रशिक्षित नियोजित शिक्षक को प्रशिक्षण दिला देने,  छात्र शिक्षक अनुपात में वर्ग कक्ष का निर्माण, छात्राओं के लिए अलग से टायलेट की व्यवस्था , रिक्त पदों पर शिक्षकों की नियुक्ति आदि पर विशेष जोर दिया गया था।

आंकड़े गवाह हैं कि आज  भी देश में 8.32 प्रतिशत ऐसे स्कूल हैं जो केवल एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। बहुत सारे ऐसे स्कूल हैं जहां दो शिक्षक हैं। इन्हीं शिक्षकों को मध्याह्न भोजन की व्यवस्था करने,  पोशाक छात्रवृत्ति की सूची बनाने और राशि का वितरण करने, वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने -हटाने का काम करना होता है। इतना ही नहीं जिला एवं प्रखंड स्तर के अधिकारियों को जब भी जरूरत होती है , वे इन्हीं शिक्षकों की सेवा लेते हैं। आज शिक्षकों पर अक्सर यह आरोप लगाया जाने लगा है कि शिक्षा की गुणवत्ता में जो कमी आयी है उसके लिए शिक्षक ही जिम्मेवार हैं जबकि हकीकत में ऐसा नही है।