गठबंधन का ‘सत्तारायण’

गठबंधन का ‘सत्तारायण’

यूपी में करीब 25 साल बाद ऐसा संयोग बना है जिसमें सपा और बसपा दोनों पार्टियां एक साथ गठबंधन के घर में प्रवेश कर चुकीं हैं। इस अभूतपूर्व घटना के बाद मन में जो सवाल उठ रहा हैं वो ये कि इस गठबंधन से क्या सपा और बसपा का राजयोग बनेगा, क्या ये गठबंधन ‘सत्तारायण’ होगा? 1993 की सफलता की ‘छाया’ में, गठबंधन का जो आकार तय हुआ है, वही ‘छाया’ इस बार सशंकित भी कर रही है। 1993 में सपा-बसपा के मिलने से पहले दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में कोई कटुता नहीं थी, प्रेम भी नहीं था, इसलिए जब नेता मिले तो जमीन पर कार्यकर्ताओं का भी मेल दिखा और मतदाताओं का भी। परिणाम ये हुआ कि राम लहर की प्रचंड वेग, मंथर गति की हो गई और सत्ता बीजेपी के हाथ से जाती रही । सत्ता, सपा-बसपा के पास भी नहीं टिकी, मेल मिलाप के चंद दिनों में ही दोनों दलों के नेताओं में कटुता इतनी बढ़ गई कि सपा के कुछ नेताओं ने बसपा नेता मायावती पर हमला तक कर दिया। यहां से शुरू हुई सपा और बसपा की दुश्मनी रजत जयंती मनाकर खत्म हुई। लेकिन शंका ये है कि इस बार नेताओं के मिलने से क्या कार्यकर्ता और मतदाता आपस में मिल पाएंगे?

2003 और 2012 में मुलायम और अखिलेश के कार्यकाल में यूपी के दलितों को सत्ता का जो कोपभाजन सहना पड़ा या फिर 2007 में मायावती सरकार के दौरान यादव जाति को जिस व्यवस्था से रूबरू होना पड़ा, वो अनुभव इन दोनों जातियों को एक साथ आने देगा? जिन 38 सीटों पर सपा लड़ेगी वहां दलित मतदाता उसे वोट करेगा, ठीक वैसे ही जिन 38 सीटों पर बीएसपी लड़ेगी वहां यादव मतदाता धूर विरोधी बसपा के प्रत्याशी को अपना मत देगा?

यहां एक और समस्या है कि सपा को अपने आधारभूत यादव मतदाताओं के अलावा बाकी कौन सी पिछड़ी जातियां समर्थन देंगी? ठीक वैसे ही बसपा को जाटव मतदाताओं के अलावा किन दलित जातियों का वोट मिलेगा? क्योंकि 2014 और 2017 के चुनावों में गैर यादव पिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलित मतदाताओं ने बीजपी को अपना विकल्प माना था। अगर इस बार भी ऐसा हुआ तो करीब 12 फीसदी यादव और 15 फीसदी जाटव मिलकर 38 दुना 76 सीट ला पाएंगे? ये मुश्किल लगता है ।

ये गणित तो गठबधन के निर्माताओं को भी पता थी। दरअसल उनकी असली उम्मीद मुस्लिम मतदाताओं से है। सपा-बसपा का मानना है कि उनके गठबंधन से मुस्लिम एकतरफा उन्हे ही वोट करेंगे। लेकिन यहां कांग्रेस ने पेंच फंसा दिया है। यूपी के मुस्लिम भी जानते हैं कि केन्द्र की सत्ता से बीजेपी को दूर रखने के लिए कांग्रेस की भूमिका कितनी अहम है। अटल बिहारी के चेहरे से मुस्लिमों को उतनी दिक्कत नहीं थी जितनी नरेन्द्र मोदी और आदित्यनाथ से है। ये ‘दिक्कत’ मुस्लिमों को किधर ले जाएगा ये तो अभी मुस्लिम मतदाता भी तय नहीं कर पाया है। वहीं शिवपाल और ओमप्रकाश राजभर भी अपने पैने दांत दिखाने के लिए उतावले हैं। कुल मिलाकर यूपी की राजनीति एक ‘खिचड़ी’ जैसी बन गई है। ये ‘खिचड़ी’ अभी गर्म है इसलिए इसमें से महक और भाप ज्यादा उठ रही है। फिलहाल ये महक बिहार तक पहुंच गई है।


संदीप कुमार पाण्डेय, टीवी पत्रकार। फिलहाल लखनऊ से राजनीतिक उठापटक पर नजर बनाए हुए हैं ।

One thought on “गठबंधन का ‘सत्तारायण’

  1. तथ्यात्मक विश्लेषण, जो जनीनी हकीकत है, वहीं लिखा गया है, लेखक ने माया-अखिलेश के जुगलबंदी पर खासा अध्ययन किया है….सादर

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