‘लक्ष्मी’ के आगे दम तोड़ती ‘सरस्वती’

‘लक्ष्मी’ के आगे दम तोड़ती ‘सरस्वती’

ब्रह्मनंद ठाकुर

रविवार को सरस्वती पूजा थी। स्कूलों में विरानगी और चौक-चराहे पर चहल-पहल । पंडालों में सजावट में व्यस्त युवावर्ग की टोली। कुछ युवक पंडाल के बाहर माथे पर लाल-पीले और हरे रंग के कपड़े की पट्टियां बांधे, हाथ में डंडा लिए आने-जाने वाले वाहनों से चंदा वसूलने में मुस्तैद। उसी राह से मैं गुजर रहा था कि एक किशोर वय लड़के ने हाथ के इशारे से मुझे रोका।

मैंने बाइक में ब्रेक लगाया और इत्मीनान से उस लड़के से मुखातिब होते हुए कहा – ‘बोलो ।‘ लड़के ने अपने जींस पैन्ट की जेब से रसीद की पर्ची निकालते हुए कहा- ‘ सर, सरस्वती पूजा का चंदा ।’वह मुझे पहचानता था। रसीद का सादा पन्ना उलट कर पहले मेरा नाम लिखा, ‘बढमानन्द ठाकुर।’ वह लड़का मेरा नाम ब्रह्मानन्द ठाकुर भी सही से नहीं लिख पाया। फिर मुझसे पूछा ‘ कितना लिखूं सर ?’ मैने कहा- ‘दस रूपये।’ लड़के ने दस रूपये लिखकर रसीद फाड़ कर मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने उसे दस रूपये देते हुए पूछा ‘कौन है यह सरस्वती ? ‘ जवाब मिला ‘विद्या की देवी। इसकी पूजा से ही विद्या आती है। ‘वैसे यह महज एक घटना है। अक्सर लोग विभिन्न अवसरों पर ऐसी घटनाओं से रू-ब-रू होते ही रहते हैं। बात भी आयी-गयी हो जाती है। होती ही रहेगी। लेकिन इस घटना ने मुझे उलझन में डाल दिया । यह सही है कि मां के रूप में नारी ही होती है अपनी संतति की प्रथम शिक्षिका। सरस्वती भी एक नारी ही हैं लेकिन सरस्वती की पूजा से अबतक कितनी मिली विद्या और कैसी मिली शिक्षा ? देख तो यही रहा हूं कि हर साल सरस्वती पूजा के नाम पर सप्ताहों रंगदारी और जबरन चंदा वसूली का धंधा शहर के गली-मोहल्लों से लेकर गांव-देहात में भी चलता रहता है। यही है इस विद्या की देवी सरस्वती की पूजा का तरीका और यही मिली है उसकी पूजा से शिक्षा।
आज से करीब पांच सौ वर्ष पहले विद्रोही कवि कबीर ने कहा था- ‘पाहन पूजै हरि मिलै’ तो मैं पुजूं पहाड़’ ता ते वह चक्की भली, जो पीस खाए संसार। ‘हजारों साल पहले बुद्ध ने कहा था- ‘अप्पो दीपो भव ।’ सोंचता हूं, सब व्यर्थ गया। वस्तुत: छात्र, युवा का अर्थ होता है, सीखना। यह शिक्षा भी बहुत पहले लेनिन ने दी थी ‘टू लर्न इज यूथ ।’सरस्वती पूजा के नाम पर आज क्या कर रहे हैं छात्र और युवा । यह देख-सुनकर शर्म भी शर्मसार हो रही है। ठीक से नहीं सीखने, अतीत से सबक नहीं लेने का ही परिणाम है कि आज पूंजीवाद आदमी को अपराधी बनाकर जानवर से भी बदतर स्थिति में पहुंचा रहा है। बाजारवाद का शिकंजा लगातार कसता जा रहा है। इस बाजारवाद में भोग विलास की सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। पूजा-पंडाल और मंदिरों में दारू-शराब पीने-पिलाने पर कोई रोक-टोक नहीं है। नारी की मर्यादा को रौंदने वाले भोंडे-भद्दे, अश्लील गीतों के केसेट इन अवसरों पर खूब बजाए जाते हैं। ‘या कुंदेन्दु तुषारहारधवला या शुभ्र वस्त्रावृता’ का ऐसा अपमान ! ऐसी फजीहत ! यही तो है सरस्वती पूजा का बाजारवादी रूप ! थोड़ा पीछे लौट कर याद करते हैं। पचास, साठ साल पहले सरस्वती की मूर्तियों का कोई बाजार नहीं था। प्राय: शिक्षण संस्थाओं में ही सरस्वती की पूजा होती थी। ग्रामीण कुम्हारों और कलाकारों द्वारा श्रद्धा से सरस्वती की प्रतिमा बनाई जाती थी। जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब पांच से सात रूपये मे सरस्वती की मूर्ति आ जाती थी। तब गांव-गांव गली-गली पूजा की परम्परा शुरू नहीं हुई थी। आज देखता हूं, सरस्वती की प्रतिमा हजारों रूपये में बिकती है। पंडाल और प्रतिमा के निर्माण में बड़ी प्रतिस्पर्धा हो गई है। इसपर बाजार हावी हो गया है। आस्था कुहुक रही है, आडम्बर चहक रहा है।
वस्तुत: विद्या या ज्ञान सीखने से, अभ्यास से प्राप्त होता है’ किसी देवी या देवता के पूजन से नहीं। अगर पूजा करने से ज्ञान-विज्ञान हासिल हो जाता तो 36 कोटि प्राचीन और असंख्य अर्वाचीन देवी-देवताओं की पूजा करने वाला यह देश दुनिया के पिछलग्गू देशों की कतार में शुमार न होकर उन विकसित देशों में गिना जाता जो देवी-देवताओं की पूजा किए बिना आज उन्नत ज्ञान-विज्ञान हासिल कर चुके हैं। वेसे देखा जाए तो पूजा के लिए निश्चित कर्मकांड और कुछ मंत्रोच्चार की पुनरावृत्ति के अलावा और किसी चीज की जरूरत भी नहीं होती जबकि विद्या और ज्ञानार्जन तो आवश्यकता के अनुसार सदैव नूतन होता है । रटंत विद्या की तरह पूजा भी तो रटंत कर्मकांड के सिवा कुछ नहीं है। यह रटंत कर्मकांड जनमानस में आस्था और अंधविश्वास के रूप में दृढमूल हो गया है और हमारे समाज को प्रतिगामी बना रहा है। आस्था और अंधविश्वास की जड़े मजबूत बनाने में बाजारवाद का हित निहित है। बाजारवाद और व्यावसायीकरण में आदमी गौण और पैसा सर्वोपरि हो गया है। आस्था या कहें अंधविश्वास पर आधारित यह पूजा और अनुष्ठान मुनाफा बटोरने के बाजार के सिवा और कुछ नहीं है। इससे हमारी नई पीढी शिक्षा और ज्ञान से वंचित होकर किस दिशा में जा रही है, उसे एक कवि की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है –
‘ गांव-गांव में टिनही हीरो, रोजी-रोटी भेल सुरुज-चान ।
मिले न केनहुं कोनो काम, गांव-गांव में टिनही हीरो।।
हाथ में बल्ला, फेंट में कट्टा, माथा पर बिस्टी सन बन्हले।
ललका या हरियरका पट्टा बस-ट्रक के बोले, रोको, गांव-गांव में टिनही हीरो।।
पढे़-लिखे में जीरो-जीरो, पवनी-तिहार आ पूजा कीर्तन, रंगदारे के नाम चलइय।
जबरी चंदा न देला पर चमके लागल छूरो, गांव-गाव में टिनही हीरो।।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।