‘साक्षात्कार अधूरा है’- गुरु से गुरु तक की यात्रा

‘साक्षात्कार अधूरा है’- गुरु से गुरु तक की यात्रा

पशुपति शर्मा

बंसी दा के साथ काम करने का अपना अनुभव है। रचना-कर्म के दौरान एक आत्मीय रिश्ता रहता है और यही गुरु-शिष्य परंपरा का अपना अनूठापन है। शिक्षक दिवस पर जो सीरीज मैंने शुरू की है, उसे जारी रखने की कोशिश है। नाटक- ‘साक्षात्कार अधूरा है’ की रचना प्रक्रिया की दूसरी किस्त आप सबके बीच है ।

गुरु बंसी कौल ने यूं जोड़ दिया अपने गुरु से नाता-2

मैं और मोहन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से लौटते वक्त, बात करते रहे। नाटक की स्क्रिप्ट में अब आगे क्या करें? इसके साथ ही मई के पहले हफ्ते में घर वैशाली से ग्रेटर नोएडा वेस्ट शिफ्ट किया। दो हफ्ते नए घर को जमने-जमाने में लगे। इस बीच बंसी दा से एक-दो बार फोन पर बातचीत हुई। मैंने खुद को सहेजा। कीर्ति जैन और अशोक वाजपेयी जी से वक्त लेकर बातचीत की। दोनों ही मुलाकातों में मोहन जोशी मेरे साथ रहा। वो लगातार मुझे भरोसा देता रहा- भइया, आप लिखिए, अच्छी बनेगी स्क्रिप्ट।

उधर, दादा ने मन ही मन मानो इलेक्शन तक मुझे छूट दे दी थी। इलेक्शन समाप्त होते ही ‘फरमान, अब तो आकर मिलो-मुझे भोपाल स्क्रिप्ट भेजनी है और काम शुरू करवाना है।’ जून के पहले हफ्ते में मैंने 4 दृश्य रि-राइट कर दादा को मेल पर भेजे। दादा ने देखा और कहा- “इसमें जो कविताएं इस्तेमाल की है, उनके ईस्वी सन और पेज नंबर भी दर्ज करो, और भेजो। मैं तब तक कविताएं याद करने एक्टर्स को भेज देता हूं।” 8 जून तक मैंने नाटक का दूसरा ड्राफ्ट पूरी तरह तैयार कर लिया। पहले ड्राफ्ट से दूसरे ड्राफ्ट के बीच काफी कुछ बदल चुका था। कई कविताएं अब इस ड्राफ्ट में जगह नहीं हासिल कर पाईं थीं।

दादा ने बताया कि नाटक की रीडिंग शुरू हो चुकी है। अब फरीद भाई और हर्ष से भी संपर्क में रहो। दादा से स्क्रिप्ट को लेकर एक और मुलाकात अब जरूरी हो गई थी। मोहन के साथ 10 जून को मैं फिर द्वारका पहुंचा। दादा ने अशोक वाजपेयी वाले इंटरव्यू का थोड़ा सा हिस्सा सुना। स्क्रिप्ट के अलग-अलग हिस्सों पर बात-चीत हुई। उन्होंने कहा- ” अभी तो तुम जो भी चीजें जोड़ सकते हो जोड़ो, खुद प्री-एडिट करना बंद करो। ” मैंने उन्हें बताया कि फरीद भाई भी चाह रहे हैं कि कुछ सीन और बिल्ड-अप किए जाएं।

नाटक लिखने के दौरान कई वीकली ऑफ स्क्रिप्ट के नाम रहे। कहीं आना-जाना न हो सका। यही वजह रही कि दादा से एक मुलाकात में तो मैं पत्नी सर्बानी, बेटी रिद्धिमा और बेटे अनमोल के साथ ही दादा के पास पहुंच गया। दादा-दीदी के स्नेह ने हमें आत्म-विभोर कर दिया। बड़े प्यार से खाना बनाया था अंजना दीदी ने। वो भी इतना सारा कि रंग-विदूषक की पूरी मंडली जमा हो जाए, तो भी खत्म न हो। जुमा-जुमा 5 लोग और खाना दीदी ने बना लिया 20 लोगों का। कश्मीरी मसालों के साथ कश्मीर का जायका भर नहीं था उस खाने में, बहुत सारा प्यार भी मिला था।

दादा (बंसी कौल) ने रंग विदूषक के वरिष्ठ रंगकर्मी फरीद भाई को रिहर्सल की जिम्मेदारी सौंप दी। वो भोपाल में अलग-अलग सीन ब्लॉक कर रहे थे। इस दौरान उन्हें जो कमियां दिखीं, उन्होंने मुझसे शेयर कीं। इधर दादा की ब्रीफिंग भी लगातार फोन पर मिल रही थी। नाटक धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा। इस बीच स्क्रिप्ट का तीसरा ड्राफ्ट भी तैयार हो गया। दादा के कहे मुताबिक सूत्रधारों के संवाद बढ़ गए और मंच पर कई-कई नेमि अवतरित हो गए।

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पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।