सरकार, रोजी-रोटी का जरिया बने हिंदी

सरकार, रोजी-रोटी का जरिया बने हिंदी

ब्रह्मानंद ठाकुर

आज हिन्दी दिवस है। राजभाषा हिन्दी के विकास के बड़े-बड़े दावे और वादे किए जा रहे हैं। बाबजूद इसके आज अपने ही घर में हिन्दी कितनी उपेक्षित और पददलित है , यह बताने की जरूरत नहीं है। हिन्दी दिवस पर हिन्दी के महत्व और उसकी उपयोगिता पर लच्छेदार भाषण झाड़ने वाले विद्वान ,राजनेता और अधिकारी अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने-पढ़ाने से इसलिए परहेज करते रहे हैं कि हिन्दी मे उनके बच्चों का आर्थिक भविष्य सुरक्षित नहीं है। आज ऐसे लोग अपने बच्चों के लिए अंग्रेजी के अलावे किसी दूसरी भाषा की शिक्षा दिलाना समय की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं समझते। परिणाम सामने है कि आज हमारी नई पीढी की जुबान से उसकी अपनी मातृभाषा उजड़ने लगी है।

मै गांव में रहने के कारण ऐसी तमाम चेष्टाओं को बड़े निकट से देखता और महसूस करता हूं कि कैसे लोग खुद को सम्भ्रांत दिखाने के लिए अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। मां, बाबूजी,  चाचा, चाची, भाई , बहन जैसे रिश्तों का सम्बोधन बड़ी तेजी से बदला है मां, मम्मी से माम हुई , पिता पापा से डैडी और फिर डैड हुए , भाई ब्रदर बना और बहन हो गई सिस्टर। चाचा अंकल तो चाची बन गईं आंटी। हम हिन्दी दिवस मनाते रह गये।

हिंदी दिवस पर विशेष

आज़ाद भारत में राजभाषा के रूप में स्वीकृति मिलने के बावजूद हिन्दी को उस स्थान पर अब तक प्रतिष्ठित नहीं होने दिया गया, जिसकी वह हकदार है। 14 सितम्बर 1949 को व्यापक विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी और उसकी लिपि देवनागरी। इसका उल्लेख हमारे संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343  (1) में किया गया है।  14 सितम्बर 1953 से इस तिथि को हिन्दी दिवस के रूप में मनाए जाने की शुरुआत हुई। गैर हिन्दी भाषी राज्यों ने इस फैसले का विरोध किया तो अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा। इस तरह हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी भी भारत की राजभाषा बनी।

1991 में नव-उदारीकरण का दौर आया और इसके अनुरूप आर्थिक नीतियां लागू की गयीं। इसके लागू होने के पीछे महत्वपूर्ण कारक थे- सोवियत समाजवाद का पतन, देश मे बड़े पूंजीपति घरानों की बढ़ती इजारेदारी और नई प्रोद्यौगिकी का विकास। इसके प्रभाव से हमारे देश की अर्थनीति में अनेक बदलाव आए। इसका जबरदस्त असर हिन्दी भाषा की पढाई पर पड़ा। ऐसा नहीं कि केवल हिन्दी ही प्रभावित हुई , इसके अलावे अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर भी अंग्रेजी का दुष्प्रभाव पड़ा। आम लोगों में एक धारणा बन गई कि हिन्दी पढने से रोजी-रोजगार नहीं मिल सकता। यह आर्थिक उदारीकरण का ही प्रभाव था कि शहरों से लेकर गांव, कस्बों तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे और अपने बच्चों के सुखद ,सुन्दर भविष्य की खुशफहमी पाले अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा दिलाने का हर संभव प्रयास करने लगे।

हिन्दी की उपेक्षा का मुख्य कारण है हिन्दी बोलने-पढने वाले और भाषा के उच्च योग्यताधारी युवाओं को रोजी -रोजगार के अवसर उपलब्ध न हो पाना। वैसे तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवाओं के रोजगार की भी गारंटी वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था कहां दे पा रही है ? अन्य चीजों की तरह भाषा भी अपने समय की अर्थव्यवस्था के आधार का ऊपरी ढांचा होती है जो निरंतर अपने आधार से संचालित, प्रभावित और नियंत्रित होती है। हिन्दी भाषा की भी नियति यही है। यदि हिन्दी को जनजन मे लोकप्रिय बनाना है तो उसे बाज़ार के साथ-साथ तकनीक की भाषा के रूप में सम्मान दिलाना होगा।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।