भाग राजेंद्र भाग, नहीं तो कुछ नहीं कर सकेगा

भाग राजेंद्र भाग, नहीं तो कुछ नहीं कर सकेगा

आर्ट सर। ज़िंदगी में कुछ शिक्षक मन पर ऐसा असर डालते हैं कि उनसे एक अलग ही नाता सा बन जाता है। उन्हीं में एक नाम है जवाहर नवोदय विद्यालय के आर्ट सर- राजेंद्र प्रसाद गुप्ता का। पिछले करीब डेढ़ साल से वो कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं। बावजूद इसके ज़िंदगी को लेकर उनकी सोच, उनकी विचार शैली और अभिव्यक्ति में वही पुरानी सी सहजता है। काफी दिनों से एक खयाल आ रहा था कि आर्ट सर की कला यात्रा, उनकी ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं को करीब से जानूं-समझूं। पिछले दिनों उनके दिल्ली डेरे पर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। इस सीरीज का पहला हिस्सा, बदलाव के पाठकों के लिए।

हमारे कला शिक्षक रहे राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, ने शादीपुर मेट्रो स्टेशन के करीब एक डेरा ले रखा है। जब भी कैंसर के इलाज के सिलसिले में वो दिल्ली आते हैं, यहीं ठहरते हैं। बल्कि पिछले एक साल में उनका काफी वक्त इसी घर में गुजरा है। व्हाट्स अप पर इजाज़त की औपचारिकता निभाने के बाद मैं रविवार (4 जून 2017) की सुबह 8.30 बजे उनके डेरे पर पहुंचा। तब वो स्नान कर रहे थे। कपड़े पहनते हुए उन्होंने मुझसे 5 मिनट का वक़्त मांगा-मंदिर जाने के लिए। आदतन मैं भी उनके साथ हो लिया। घर से चंद कदमों की दूरी पर ही है वो मंदिर। सर के साथ मैं भी मंदिर तक गया। उन्होंने तमाम देवी-देवताओं के आगे माथा टेका। पूजा की। चरणामृत लिया। प्रसाद लेकर हम घर लौट आए।

इसके बाद मैंने अपनी नोट बुक निकाली। ”तो सर, बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाए। आप को ही कहना है, मुझे तो बस नोट करना है। ” और सर फ्लैशबैक की दुनिया में चले गए। कुछ क्षण बाद, उन्होंने कहा- “कला के प्रति झुकाव तो बचपन से ही रहा। ग्रामीण परिवेश के बावजूद मैं इस ओर बढ़ता गया। छठे दशक की बात है, तब मैं गांव के स्कूलों की दीवारों पर चॉक चुराकर चित्र बनाता। शिक्षक न होते तो ब्लैक बोर्ड पर कुछ चित्र उकेरता। कभी ईंट का टुकड़ा हाथ लग जाता तो उसका इस्तेमाल भी चित्रकारी के लिए करता। मुझे डर रहता कि शिक्षक कभी पिटाई भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं कभी। शिक्षकों ने हमेशा सराहा, उत्साह बढ़ाया।”

राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की कला यात्रा-एक

राजेंद्र प्रसाद गुप्ता की ये यात्रा साहेबगंज जिले के मिर्जाचौकी गांव से शुरू हुई। साहेबगंज तब बिहार में हुआ करता था, इन दिनों झारखंड में है। सातवीं कक्षा तक गांव के स्कूल में ही पढ़ाई-लिखाई हुई। पिता के साथ सुबह घास काटने जाते। मिर्जाचौकी में सप्ताह में 2 दिन हाट लगती- सोमवार और बृहस्पति वार। आज भी इन्हीं दो दिनों में हाट लगती है। लाल बाबू (राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के बचपन का नाम) घुघनी, फुलौरी हाट में बेचते थे।

माली हालत ऐसी थी कि घर में लगा अमरूद का पेड़ भी उम्मीद का जरिया बन गया था। अमरूद पेड़ में लगते तो एक ड्यूटी और बढ़ जाती। स्कूल के बाद टोकरी में अमरूद भर कर रेलवे स्टेशन चले जाते लाल बाबू। मां पच्चीस पैसे देने का वादा कर देंती तो उत्साह कई गुना बढ़ जाता। अमरूद लेकर ट्रेन में चढ़ जाते और एक-दो स्टेशन का सफ़र कर अमरूद बेच आते। पैसे जो मिलते तो उससे 10 पैसे में एक पेंसिल, 10 पैसे में एक रबड़ खरीदने का अपना ही आनंद था उन दिनों। लाल बाबू ने बच्चों वाले शौक अपनी कला पर कुर्बान कर दिए थे।

1972 में राष्ट्रीय ग्रामीण छात्रवृति की शुरुआत हुई। लाल बाबू ने इसके लिए 2 इम्तिहान दिए और स्कॉलरशिप हासिल कर ली। जेके हाई स्कूल , राजमहल से क्लास 8 से 11वीं तक की शिक्षा हासिल की। तब हॉस्टल में रहने के दौरान काफी चित्र बनाए। इस दौरान राजेंद्र गुप्ता की ज़िंदगी में हिन्दी के मोदी सर आए। वो उन्हें काफी प्यार करते और उनका उत्साह बढ़ाते। गंगा के किनारे बालू पर लकड़ी के टुकड़ों से उन दिनों कई कलाकृतियां बनाईं, जो पानी की धारा में बह गईं लेकिन स्मृतियों में अब भी कैद हैं। इसी तरह संघर्ष के बावजूद ज़िंदगी आगे बढ़ती जा रही थी। 100 रुपये की स्कॉलरशिप में अपना खर्चा ही नहीं चल रहा था, बल्कि बचत कर राजेंद्र प्रसाद 40 रुपये हर माह घर भी भेज दिया करते।

ये बात 1976 की है। उस वक़्त 11 वीं कक्षा में मैट्रिक बोर्ड परीक्षा होती थी। राजेंद्र गुप्ता ने प्रथम श्रेणी से इम्तिहान पास किया। गांव का पहला बालक, जिसने प्रथम श्रेणी हासिल किया था। गांव में चर्चा हो गई। मुखिया, सरपंच सब घर आ धमके- “लाल बाबू को आगे पढ़ाना है।” किसी ने पिता को डॉक्टर बनाने की नसीहत दी, किसी ने इंजीनियर बनाने की सिफारिश की, किसी ने वकालत को सही बताया तो किसी ने डीएम तक के सपने बुन दिए। ये अजब बात थी कि कोई उस युवक से कुछ नहीं पूछ रहा था कि आखिर उसकी अपनी ख्वाहिश क्या है?

मन में बंसी बांसुरी चित्रों में भी बाद में साकार हुई।

राजेंद्र प्रसाद की दिली ख्वाहिश थी कि उन्हें आर्ट कॉलेज में दाखिला मिल जाए। इसी ऊहापोह के बीच भागलपुर के मशहूर टीएनबी कॉलेज में इंटर में राजेंद्र प्रसाद गुप्ता का नामांकन हो गया। कुछ वक्त तक वेस्ट ब्लॉक हॉस्टल में रहे लेकिन जल्द ही हॉस्टल छोड़कर सखीचंद घाट पर लॉज में रहने लगे। यहीं रात में गंगा किनारे रामू नाम का नाविक नाव लगाता और बहुत मधुर बांसुरी बजाया करता। राजेंद्र गुप्ता उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं- “मेरी नींद, मेरा होशो-हवास सब बिखर जाते थे। ” बांसुरी से ऐसा राग हुआ कि एक बांसुरी खरीद कर राजेंद्र गुप्ता बांसुरी बजाने की कोशिश करने लगे। इसी दौरान संगीत में भी अभिरूचि बढ़ती गई। विनोद शर्मा के साथ कभी-कभी आप बैंजो बजाया करते थे।

उधर, दूसरी तरफ कॉलेज में जब जियॉलॉजी का प्रेक्टिकल होता तो मेढ़क देख ऊबकाई होने लगती, फॉर्मल डिहाइड की गंध से उलटी करने का जी होता। राजेंद्र प्रसाद तब सोचते कि न जाने कहां फंस गए? रसायन शास्त्र की एसिड टेस्ट की दुर्गंध ने मन को परेशान कर रखा था। बस इस दौरान थोड़ा सुकून मिलता तो हिन्दी की क्लास में। हरि दामोदर काफी रस लेकर रश्मिरथी का पाठ करते। रश्मिरथी सुनकर शरीर में स्फूर्ति का एहसास होता। इन सबके बीच किसी तरह 2 साल बिताए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद गुप्ता के मन में हमेशा ये खयाल आया करता- ‘भाग राजेंद्र भाग, नहीं तो कुछ नहीं कर सकेगा’।

(आर्ट सर की भूख हड़ताल और दरभंगा आर्ट कॉलेज का किस्सा अगली कड़ी में )


india tv 2पशुपति शर्मा ।बिहार के पूर्णिया जिले के निवासी हैं। नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से संचार की पढ़ाई। जेएनयू दिल्ली से हिंदी में एमए और एमफिल। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। उनसे 8826972867 पर संपर्क किया जा सकता है।

4 thoughts on “भाग राजेंद्र भाग, नहीं तो कुछ नहीं कर सकेगा

  1. Like teacher, like student.
    Very beautifully written Pasupati Bhaiya.
    Eagerly waiting for next chapter.
    All the best!

  2. मात्र शिक्षक की कहानी नहीं है ये। एक ऐसा मार्गदर्शक और जादूगर जिसने उन छात्रों में भी चित्रकला के प्रति अभिरुचि पैदा की जिसमे ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा नही थी। एक कलाकार जिसने अपने अनुभव और सहृदयता के रंग से हमारे व्यक्तित्व के कैनवास को ऐसा संवारा कि रंग आज भी कायम है।

  3. oh God !! jld thik kr de mare sir ko.
    Great sir…
    one and only one among all teachers who thinked about our future.
    ony one or two class in a week.
    most of my mates afraid to it but I’m just opposite, I had interest.
    reason is not that i’m interested in art
    he motivate us and like it .
    I’m praying from god for their helth
    Thank you vaiya for your great job

  4. बदलाव ही जिंदगी है। हर किसी को इस के लिए तैयार रहना पड़ेगा। हमारे आर्ट सर एक ऐसे ही टीचर है। जिन्होंने हर किसी के जिंदगी में बदलाव के रंग भरे हैं।

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