शब्दों की हिंसा फैलाने वालों से भी ‘संवाद’ करना होगा

शब्दों की हिंसा फैलाने वालों से भी ‘संवाद’ करना होगा

प्रवीण कुमार

लगातार बातों, गरमा-गरम बहसों के दौर में
सबसे खतरनाक है, सब कुछ सुनकर भी चुप रह जाना

ठोस अनुभवों से कह सकता हूं कि हम एक बड़े मंथन के दौर से गुजर रहे हैं. पुरानी मान्यताएं, परंपराएं, धारणाएं और भी बहुत कुछ को चुनौती दी जा रही है. पता नहीं यह उचित है या अनुचित, पर सब बदल रहे हैं. कई बार मन महसूस करता है कि आज हमें कुछ स्थापित सत्यों पर गहन मंथन करने की जरूरत है. इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है. यह हमारे परिवार, दोस्तों, स्कूल, कॉलेजों, दफ्तरों और वाट्सएप ग्रुप पर मिल जाते हैं.

एक हद तक सच तो यही है कि हम विचारों के एक उन्माद के दौर में हैं. हम लगातार बातें करते हैं. गरमा-गरम बहस सुनते हैं. शायद हमारी समस्या भी यही है. हालांकि, सबसे खतरनाक है, सब कुछ सुनकर भी चुप रह जाना. सूचना प्रवाह के इस दौर में आज फेक न्यूज हमारे पूर्वाग्रह की पुष्टि करता है. इन फेक न्यूज पर भरोसा करना ज्यादा आसान है. ऐसे में यह फर्क करना कठिन है कि सच क्या है, लेकिन हम अमूमन अपने पूर्वाग्रह पर सवाल नहीं उठाते हैं. ऐसा कर संभवत : हम समाज के साथ न्याय नहीं करते हैं. अस्पष्टता समाज की, रिश्तों की, संवाद की एक नयी सच्चाई लगती है.

मंथन के इस दौर में सोच रहा हूं क्या गांधी कोई राह दिखा सकते हैं. ‘अस्पष्टता’ की सच्चाई समझने में सहूलियत कर सकते हैं. गांधी कहते हैं – ‘अपने विचारों को सकारात्मक रखें, क्योंकि आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं. अपने शब्दों को सकारात्मक रखें, क्योंकि आपके शब्द आपका व्यवहार बन जाते हैं. अपने व्यवहार को सकारात्मक रखें, क्योंकि आपका व्यवहार आपकी आदतें बन जाता है. अपनी आदतों को सकारात्मक रखें, क्योंकि आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते हैं. अपने मूल्यों को सकारात्मक रखें, क्योंकि आपके मूल्य ही आपके भाग्य बन जाते हैं.’

जैसा कि हमें पता है राष्ट्रपिता की 150वीं जयंती पर लोग बहुत कुछ कह सुन रहे हैं. गांधी ने न केवल भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को प्रेरित किया, बल्कि संवाद की सीमाओं को भी परिभाषित किया. मानवीय समाज की स्थापना के लिए गांधीवादी संवाद आज भी प्रासंगिक है। भले ही गांधी एक शर्मीले वक्ता थे, पर वह मानते थे कि यह शर्मिलापन उनकी संपत्ति थी. बकौल गांधी ‘भाषण में मेरी हिचकिचाहट, जो कभी एक खीज थी, अब एक खुशी है. इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है, कि इसने मुझे शब्दों की किफायत सिखाई है.’ मेरी चिंता फेक न्यूज के इस दौर में संवादहीनता व शब्दों की हिंसा को लेकर है. हम यह क्यों नहीं समझते हैं कि ‘नफरत व हिंसा की भाषा बांटती है, डर पैदा करती है’, और बाद में इसके अराजक गुण पूरे समाज को निगल लेते हैं.

अंत में दिनकर जी की पंक्तियां
तू चला, तो लोग कुछ चौंक पड़े, ‘तूफान उठा या आंधी है?’
ईसा की बोली रूह, अरे! यह तो बेचारा गांधी है ’

प्रवीण कुमार। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढाई। संप्रति रांची में कार्यरत। साधारण बने रहने की चिर आकांक्षा से ओत-प्रोत प्रवीण कुमार ने अपनी एक अलग ही जीवन शैली और संवाद शैली बनाई है। आपकी खामोशी में संवाद की अनंत संभावनाएं हैं।