विकास की अंधी दौड़ में दम तोड़ता गांव

विकास की अंधी दौड़ में दम तोड़ता गांव

ब्रह्मानंद ठाकुर

हमारा गांव आधुनिकता की अंधी दौड़ में बुरी तरह हांफ रहा है। जो परम्पराएं, रीति-रिवाज, भाईचारा और मानवीय मूल्य गांव की पहचान हुआ करते थे, वे कब ग्रामीण जीवन से गायब हो गए पता ही नहीं चला। गांव धीरे-धीरे कब शहर बनता चला गया भनक भी नहीं लगी । नतीजा ये हुआ कि विकास और बाहरी चमक-धमक के नाम पर हम आंतरिक सुंदरता को भूलते चले गए । अभी हाल ही में गांव में एक लडकी की शादी थी। पूजा मटकोर के दिन  सामूहिक भोज का आयोजन था। शहर से हलवाई और बैरा बुलाया गया था। भोज का आयोजन देर रात तक चलता रहा। लोग आते रहे और भोज चलता रहा। लजीज खाना और आलीशान व्यवस्था । हर कोई खुशी-खुशी खा-पीकर अपने घर चला गया, लेकिन छोड़ गया गंदगी का अंबार । जिसकी पहवाह आयोजन करने वाले को नहीं रही तो भला आयोजन में शरीक होने वालों को कैसे होती ।

हर रोज की तरह मैं सुबह उठा तो मंजर बिल्कुल बदला-बदला सा दिखा । हर तरफ प्लास्टिक और फाइबर का ढेर । जिसका इस्तेमाल बीती रात हुई पार्टी के लिए किया गया था । जरा सोचिए हम आप बच्चों की शादी करते हैं और जीवन की नई शुरुआत की शुभकामनाएं देते हैं लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि आधुनिकता के चक्कर में हम अपने बच्चों को सौगात में प्रदूषण और असुद्ध वातावरण भी दे रहे हैं । ये अलग बात है कि इस बारे में कोई सोचना ही नहीं चाहता । खैर उस दिन मैंने सुबह का अपना सभी काम स्थगित कर प्लास्टिक का ग्लास बिनने में जुट गया । मुझे कूड़ा बिनता देख कुछ बच्चे मदद के लिए आ गए लिहाजा कुछ देर बाद प्लास्टिक के ग्लास का ढेर लग गया । अब मेरे सामने दो रास्ते थे या तो मैं इन्हें जला दूं या फिर कहीं किसी गड्ढे में डाल दूं । यानी दोनों तरह से मैं प्रदूषण को बढ़ावा ही देने वाला था । अब मुझे लगा कि अगर में इसे यू हीं छोड़ दूंगा तो खेतो की उर्बरा शक्ति को नुकसान पहुंचेगा लिहाजा मन मसोजकर जलाने का फैसला किया, ये जानते हुए कि इससे पर्यावरण को नुकसान होना तय है ।

ये तो महज एक दिन की बात है लेकिन अब तो हर दिन शहरों की तरह गांवों में प्लास्टिक का कचरा जमा हो रहा है जो खेत से लेकर किचन तक अपनी पैठ जमा चुका है । हम सभी बाजार जाते हैं छोटा-बड़ा जो भी सामान लेना हो उसके लिए दुकानदार प्लास्टिक का थैला थमा देता है । घर आकर थैले से सामान निकालने के बाद हम उसे कूड़े की ढेर में डाल देते हैं जो उड़कर खेतों में जाता है और खेत की उर्बरा शक्ति को नुकसान पहुंचाता है । पहले कभी गांवों में इसकी जरूरत नहीं नहीं पड़ती थी क्योंकि जरूरत का हर सामान लोग अपने खेत में ही उपजा लेते थे लेकिन वक्त के साथ लोग बदले और परिवेश बदला और धीरे-धीरे उदारवाद के साथ बाजारवाद हावी होता चला गया । आलम ये है कि केले के पत्ते और पत्तल की जगह थर्माकोल आ गया और कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक ग्लास ने ले ली । आज हम शहर की तरह गांव के पर्यावरण  को प्रदूषित करने लगे हैं ।  आधुनिक बनने की ऐसी होड़ मची है कि हम प्रकृति को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं इस बारे में ना तो किसी को कोई चिंता है और ना ही कोई सोचना चाहता है ।

सुख-दुख में सहभागी बनना, हर मौके पर मिलजुल कर कार्य को अंजाम देना हमारे गांव की मौलिक पहचान थी। बिन मांगे लोग आयोजन वाले घरों में जरूरत की चीज पहुंचा देते थे। लडकी की शादी या लडके के उपनयन के अवसर पर गांव के लोग मिलजुल कर मंडप बनाते थे। लगता था कि यह अपना ही काम है। भोज के दिन दरवाजे पर चूल्हे के लिए लम्बा तीर (गढ्ढा ) खोदा जाता था । टोकना (बड़ा हंडा) गांव से मांग कर लाया जाता था । प्रत्येक गांव में सार्वजनिक चंदे की रकम से कम से कम 8-10 टोकना खरीद कर जरूर रखा जाता था। शामियाना, दरी, जाजिम, पेट्रोमेक्स क्या नहीं उपलब्ध हुआ करता था गांव में । तब न तो टेन्ट हाउस का प्रचलन हुआ करता था और ना की कुक की कहीं चर्चा। गांव की महिलाएं आंगन में सब्जी, पापड़ समेत तमाम सामान बनाती थीं। अंचार बनाने का काम गांव की जानकार महिलाएं चार दिन पहले ही कर लेती थी। भोज के दौरान खाना केले के पत्ते पर परोसा जाता था। जिसे न जलाने का झंझट और ना पर्यावरण को नुकसान का कोई चक्कर रहता।

आज वक्त के साथ ये पुरानी बातें बनकर रह गई हैं । आज की युवा पीढ़ी तो शायद इन सब बारे में जानती भी नहीं और न तो कोई बताने वाला है । हालांकि जिस तरह से नौजवान प्रकृति के प्रति धीरे-धीरे जागरुक हो रहे हैं उससे एक उम्मीद जरूर बंध रही है कि आने वाले वक्त में कुछ बदलाव जरूर आएगा और हमारा गांव शहर की बजाय गांव होने पर ही गर्व करेगा ।


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।