आदमी का डर खत्म हो तो समझो देश आज़ाद है- गांधी

आदमी का डर खत्म हो तो समझो देश आज़ाद है- गांधी

पीयूष बबेले

‘गांधीजी’ शब्द मैंने पहली बार कब सुना, यह बता पाना नामुमकिन है. जैसे कि और भी बहुत सी संज्ञाओं के बारे में मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि वे पहली बार कब मेरे स्मृति पटल पर अंकित हुईं. यानी मेरे लिए वे स्मृति के एक अभिन्न हिस्से के जैसी हैं. मुझे यह भी याद नहीं है कि उनकी कहानियां किसी ने विशेष तौर पर बचपन में मुझे सुनाईं या किसी ने उनको लेकर खास प्रवचन दिए. बचपन की सबसे पुरानी स्मृतियों में जाता हूं तो याद आता है कि नानाजी किसी से संवाद कर रहे थे और गांधीजी का एक किस्सा सुना रहे थे, जिसमें गांधी के ऊपर कोई बुढ़िया रोज
कूड़ा फेंक देती थी. और गांधी जी उससे कुछ नहीं कहते थे. एक दिन कूड़ा नहीं फेंका गया तो गांधी जी ने वजह पता की. उन्हें पता चला कि बुढ़िया बीमार है. गांधी जी उसे देखने घर गए और उसकी देखभाल की. बुढ़िया को अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी हुई.

इस कहानी को सुने 30-32 साल हो गए, लेकिन मुझे नहीं पता कि यह कहानी सच्ची है या झूठी. बल्कि अभी एक विद्वान मित्र ने इसी तरह की कहानी मोहम्मद साहब के बारे में जरूर सुनाई. पता नहीं कौन सी कहानी सच्ची है. लेकिन जिसने भी यह कहानी रची होगी, उसने लोकमानस में अपने नायक को रचने का पक्का इंतजाम किया होगा. सुनने वाले को एक सबक देने की कोशिश की होगी.

गांधीजी की दूसरी कहानी बचपन में मैंने तब सुनी जब हम बच्चे मैदान में खेला करते थे. अक्सर कोई बच्चा किसी बच्चे को मार देता था, दूसरा बच्चा भी पटलकर मार देता था.
तब बच्चे अक्सर कहते थे कि मैं कोई गांधी जी हूं, कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो अपना दूसरा गाल हाजिर कर दूं. यह कहानी अक्सर गांधीजी पर व्यंग्य के रूप में सामने
आती थी. यही हाल गांधीजी के तीन बंदरों का था. मैं तब से लेकर आज तक समझ़ नहीं पाया कि इन कहानियों में मुझे अपने दोस्तों के साथ खड़ा होना चाहिए, या गांधी जी के
साथ. और उससे बढकर मैं यह नहीं समझ पाया कि गांधीजी क्या ठीक वैसा ही कहते थे, जैसा कि हम लड़के खेल-खेल में समझते थे.

जब मैं कॉलेज में गया और अपेक्षाकृत पढ़े-लिखों की सोहबत में आया तो मैंने पाया कि मेरी क्लास की एक टॉपर लड़की एक दिन इस बात पर नाराज थी कि महात्मा गांधी हड़ताल
और बंद का ‘अच्छा’ तरीका सिखा गए, अब जिसको समझ में आता है, हड़ताल कर लोगों को परेशान करता है.

यहां तक, गांधीजी के बारे में ज्यादा जानने-समझने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं हुई. मेरे लिए इतनी जानकारी पर्याप्त थी कि वह हमारी आजादी के नायक हैं. उन्होंने अहिंसक तरीकों
से लड़ाई लड़ी, जिसके सामने दुनिया ने सिर झुकाया. सत्य और अहिंसा उनके सबसे बड़े मूल्य थे. वे हमारे राष्ट्रपिता हैं. और उनसे बड़ा आदमी भारत में नहीं हुआ. इस अंतिम वाक्य
को छोड़कर बाकी सारी जानकारी मुझे पाठ्य पुस्तकों से मिली थी. मेरे पास अपनी पाठ्य पुस्तकों पर शक करने की कोई वजह नहीं थी. इसके अलावा ‘साबरमती के संत’ जैसे
फिल्मी गानों का भी मन पर असर था. हां, सातवी-आठवीं कक्षा में पढ़ता रहा होऊंगा, तब दूरदर्शन पर गांधी फिल्म भी देख ली थी. उससे मूर्ति और कथाओं से जन्मे गांधी की छवि
एक चलती-फिरती आग की तरह मेरे जेहन में बस गई.

लेकिन कॉलेज में ही एक और पढ़े-लिखे लड़के ने जलियांवाला बाग कांड का जिक्र करते हुए कहा कि गांधी वहां जाने वाले थे, लेकिन जान बूझकर वहां नहीं गए. फिर एक अजीब सी
कहावत सुनी ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’. कक्षा दसवीं में इतिहास के बंधन से मुक्त हो चुके मेरे जैसे विज्ञान के छात्र के लिए यह जरा गहरी चोट थी. उसके बाद तो शहर के
कई पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय लोगों ने ऐसे गलीच किस्से सुनाए, जिनकी कल्पना मेरे बचपन के छोटे कस्बों के मध्यमवर्ग ने कभी की ही नहीं थी. जैसे-जैसे जीवन बड़े शहरों, बड़े
कॉलेजों और संस्थागत झूठ की तरफ बढ़ता गया, गांधीजी की आलोचना में सुनाए जाने वाले किस्सों की संख्या भी बढ़ती गई.

तुलसीदास जी के शब्द उधार लें तो –‘जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा, तास दून कपि रूप दिखावा’ की तर्ज पर गांधी की आलोचना के किस्से और उनको और ज्यादा जानने की मेरी
तलब बढ़ती गई. जाहिर है, सिलसिला तो महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से ही शुरू हुआ. लेकिन पहला बड़ा मुकाम बापू की पोती सुमित्रा कुलकर्णी द्वारा तीन खंड
में लिखी महात्मा गांधी की जीवनी ‘अनमोल विरासत’ विरासत के रूप में सामने आया.

उसके बाद से आज तक लगातार जहां जो मिला बापू के बारे में पढ़ता रहा हूं. लेकिन पढ़ने से क्या होता है. कबीर तो कह ही गए हैं ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, भया न पंडित कोय’.

इसीलिए लगता है कि गांधी जी को शायद थोड़ा बहुत समझ पाया. और समझने का मजा यह कि जिन सवालों और झूठ के जवाब की तलाश में गांधी को पढ़ना शुरू किया था, गांधी
को पढ़ने के बाद उन सवालों का जवाब देने का मन ही नहीं रह गया. इसकी वजह यह थी कि वे सवाल असल में इतने ओछे हैं कि उनका जवाब देना उस महात्मा की तौहीन ही
होगी.
फिर भी कुछ न कुछ कहने का रिवाज है. तो जब कोई गांधी जी के जीवन के अंतिम वर्षों को देखगा तो पाएगा कि उनके जीवन का सबसे कठिन वक्त तब आया, जब उन्हें सबसे
सुखी होना चाहिए था. गांधी जी के लिए न तो वह वक्त उतना कठिन था, जब उन्हें ट्रेन से उठाकर फेंक दिया गया था. उनके लिए वह वक्त भी कठिन नहीं था, जब वह गिरमिटिया
लोगों को एकजुट कर दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष कर रहे थे. उनके लिए वह वक्त भी बहुत कठिन नहीं था, जब करीब 30 साल तक वह अंग्रेजों के खिलाफ इस देश को एकजुट कर रहे
थे और दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के पांव उखाड़ रहे थे.

उनके लिए सबसे कठिन वक्त तब आया, जब आजादी का सूरज उगने से ठीक पहले हिंदुस्तान के लोग एक-दूसरे को कत्ल करने लगे. 15 अगस्त 1946 से मुस्लिम लीग की अगुवाई
में शुरू हुआ डायरेक्ट एक्शन का फैसला बापू की सबसे बड़ी परीक्षा लेकर आया. बड़े पैमाने पर हिंदू-मुसलमान एक दूसरे का कत्ल करने लगे और मुल्क में हद दर्जे की लूटपाट होने
लगी. भारतीय जनमानस में छिपी बर्बरता अपने सबसे वीभत्स रूप में सामने आने लगी.

ऐसे में जब गांधी नोआखाली में अकेले निकल गया. सुरक्षा लेने से मना कर दिया. हिंदू-मुस्लिम नफरत की तेज आंधी में वहां की अल्पसंख्यक हिंदू आबादी की रक्षा करने लगा.
मुसलमानों के हाथों से टूटे हुए मंदिरों में मूर्तियां स्थापित कराने लगा. और फिर एक दिन चप्पल उतारकर नंगे पांव चलने लगा, क्योंकि उसे लगा कि वह जमीन पर नहीं, श्मशान
भूमि पर चल रहा है. जहां, डग-डग पर लोगों की समाधियां हैं.

वहां निहत्था, अकेला, बूढ़ा मोहनदास सिर्फ और सिर्फ उस ईश्वर की पनाह में था, उस आस्था की गोद में था और उस मानवता के भरोसे पर था, जिसे कोई भी छोटे मन का आदमी
समझ ही नहीं सकता. उसी नोआखाली में जब गांधी को पता चलता है कि बिहार के हिंदू मुसलमानों को मार रहे हैं, तो गांधी नोआखाली में ही आधे दिन का उपवास शुरू करता है.
यह कहते हुए कि बिहार के हिंदू अगर सही रास्ते पर नहीं आए, तो वह पूरे दिन का उपवास शुरू करेगा.

उसके बाद से 30 जनवरी 1948 तक गांधी की हर सांस में महात्मा के दर्शन होते हैं. जब 15 अगस्त 1947 को कलकत्ता में बैठा गांधी, उस आजादी का जश्न नहीं मनाता, जिसके
लिए वह ताजिंदगी लड़ता रहा, तो वहां पता चलता है कि वीतराग होना क्या है. और अपने बच्चों की सरकार में जब वह कलकत्ते में आजाद भारत में पहला अनशन करता है, तो
लगता है कि मोहनदास की आजादी की कल्पना उस कल्पना से कितनी बड़ी है, जो आजकल हम भारत माता की जय या जय हिंद या खुद को राष्ट्रवादी कहकर साबित करते हैं.

यही वह मुकाम था, जब गांधी के अपने लोग मुखर होकर गांधी का विरोध करने लगे. कलकत्ते के उपवास में राजाजी ने गांधी जी से कहा कि अगर जीवन का मोह नहीं है, तो क्यों
पानी में नींबू डालकर पीते हो. और गांधी ने अपने पुराने दोस्त से कहा कि तुम सच कहते हो, जीवन का कैसा मोह. और नीबू भी छोड़ दिया.

जब गांधी दिल्ली में अंतिम उपवास करते हैं, तो देखते हैं कि अपने हाथ से गढ़े गए, पटेल उनसे दूर हो रहे हैं. मौलाना आजाद ने गांधी के अंतिम दिनों में सरदार पटेल और गांधी की
मुलाकात के बारे में लिखा कि पटेल ने जिस लहजे में गांधी से बात की वह समझ से परे था.

उनके अपने लोग अगर विचार और जुबान में जुदा हो रहे थे, तो विचार में हमेशा से उनसे दूर रहे कुछ हिंदुस्तानी उनके कत्ल की तैयारी कर रहे थे. बिड़ला भवन में उन पर बम फेंका
गया. लेकिन स्थितिप्रज्ञ गांधी ने कहा, शांत हो जाइये. मृत्यु को सामने देख रहे गांधी ने इस घटना के बाद कहा कि ‘’अगर मैं फोड़ा फुंसी या बीमारी से मर जाऊं तो कहना कि
झूठ का महात्मा था. महात्मा तभी कहना जब बहादुरी से सीने पर गोली खाकर मरूं और मेरे मुंह से हे राम निकले.’’

गांधी को मृत्यु का भय नहीं था. क्योंकि वह आजाद हिंदुस्तान में भी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे. गांधी के लिए आजादी का मतलब सिर्फ अंग्रेजों से आजादी नहीं था, उनका मतलब
था मनुष्य की मुक्ति. अपने पूरे जीवन गांधी समझाते रहे कि मनुष्य डर की गुलामी में जीता है. इसलिए गीता के श्लोक में जो बात योगेश्वर कृष्ण कहते हैं, वही बात गांधी जी
जीवन भर अपने लोगों में डालते रहे. वह बात थी अभय होना, डर से मुक्त होना. गांधी इसीलिए बार-बार कहते थे कि जिस दिन पूरा भारत खुद को आजाद मान लेगा, भय से मुक्त
हो जाएगा, उस दिन भारत आजाद हो जाएगा, भले ही सत्ता की कुर्सी पर अंग्रेज बैठे रहें.

उनके लिए गुलामी एक व्यवस्था के साथ ही, मानसिकता भी थी. तभी तो भारत में आजादी की लड़ाई में कूदने से पहले उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ जैसी किताब लिखी. और इस किताब
में भौतिकवाद की गुलामी से आजाद होने का मंत्र दिया. इसीलिए उन्होंने अपने जीवन के कम से कम 20 साल विशुद्ध रूप से देश में छुआछूत खत्म करने पर खर्च किए.

वे इंसान को उसके ओछेपन से, उसकी गंदगी से, उसकी नीचता से मुक्त कराना चाहते थे. क्योंकि मसीहा यही काम करते आए हैं. अपने वराह अवतार में विष्णु आखिरकार धरती को
मैल से ही तो बाहर निकाल रहे हैं. अंगुलिमाल और बुद्ध का संवाद आखिरकार मनुष्य के भीतर मनुष्यता जगाने का ही तो संवाद है. ईसा मसीह सलीब पर लटकर, यानी असल में
हारकर, पूरी दुनिया को जीतने की नींव रखते हैं. कर्बला की लड़ाई में मुहम्मद साहब के वशंज हार कर भी एक ऐसी बात रख जाते हैं, जो बाद में पूरी दुनिया पर छाती है.

बड़े लोग, बड़े काम ही करते हैं. गांधी ने बड़ा काम किया. छोटे लोग छोटे काम ही कर सकते हैं. वे या तो बड़े लोगों को पूज सकते हैं या उन पर कीचड़ उछाल सकते हैं. शुरू में वे
कीचड़ ही उछालते हैं. लेकिन बड़प्पन की तासीर ऐसी होती है कि वह मलिन नहीं होता. इसीलिए आज हम देखते हैं कि जो गांधी के निंदक थे, आलोचक थे, वे भी उन्हें सम्मान देते
हैं. धीरे-धीरे गांधी जी देवकोटि को प्राप्त हो जाएंगे. लोग उनके विचार और संघर्ष को एक कथा की तरह याद रखेंगे, उन्हें देवता की तरह पूजेंगे और उनकी कोई भी बात नहीं मानेंगे.
संसार की यही रीत है.

बापू को प्रणाम