यात्रीगण, पहलेजा घाट पर अब न ढूंढें पुरानी गंगा

यात्रीगण, पहलेजा घाट पर अब न ढूंढें पुरानी गंगा

अभया श्रीवास्तव

घाट के नाम पर ही बन गया स्टेशन। जहां से कभी स्टीमर चला करते थे, वहां से अब रेल पुल बन गया है।
घाट के नाम पर ही बन गया स्टेशन। जहां से कभी स्टीमर चला करते थे, वहां से अब रेल पुल बन गया है।

मैं गोरखपुर से पटना  जा रही थी। नई ट्रेन नया रूट। अब पटना पहुंचने के लिए ना हाजीपुर जाने की जरूरत और ना ही गांधी सेतु को पार करने की दरकार। गंगा पर बने नए पुल ने मायके से ससुराल के सफर को आसान बना दिया है, लेकिन पहलेजा घाट रेलवे स्टेशन को देखते ही  फिर मैं उन्हीं सवालों में उलझ गयी। 34 साल पहले जो सवाल मेरे बाल मन को लगातार कुरेदते थे। उन बड़े बड़े स्टीमरों का क्या हुआ होगा जो पहलेजा घाट और महेंद्रू के बीच चला करते थे? आखिर कहां गए होंगे वो विशालकाय स्टीमर?

साल 1982 से मैं उन स्टीमर पर कभी नहीं चढ़ी। उनका परिचालन बंद हो गया था। महात्मा गांधी सेतु के शुरु होते ही पहलेजा घाट की रौनक खत्म हो गई थी और गंगा की लहरों को चीर कर उत्तर बिहार के लोगों को पटना पहुंचाने वाले वो स्टीमर भी इसके साथ ही ना जाने कहां गुम हो गए थे।  एक घंटे 10 मिनट की वो यात्रा कितनी रोमांचक होती थी। तब सोनपुर से पहलेजा घाट जंक्शन आना पड़ता था स्टीमर पकड़ने। 11 किलोमीटर का वो सफर स्टीमरों के बारे में सोचते-विचारते ही गुजर जाता था। फिर पहलेजा घाट स्टेशन से करीब आधा किमी गंगा की रेत पर पैदल चलना पड़ता था तब जाकर स्टीमर की सवारी का मौका हाथ लगता।

पहलेजा घाट के स्टीमर्स, जो अब बस स्मृतियों में शेष हैं।
पहलेजा घाट के स्टीमर्स, जो अब बस स्मृतियों में शेष हैं।

नीचे सेकेंड क्लास और ऊपर फर्स्ट क्लास। सेकेंड क्लास में ना कोई बेंच ना कुर्सी। जहां मर्जी हो बैठ जाइए। मैं पापा के साथ पहले दर्जे में ही सफर करती थी। सीसे के दरवाजे वाले केबिन और गद्देदार कुर्सियां। पूरी यात्रा के दौरान पापा से सवालों का सिलसिला जारी रहता। स्टीमर क्यों कहते हैं, बोट क्यों नहीं कहते? पापा ने बताया कि पानी के ये जहाज  स्टीम यानी कि भाप से चलते हैं। स्टीमर में कोयले को जलाकर भाप तैयार किया जाता और इसी भाप की ताकत से पानी काटने वाले स्टीमर के चप्पू तेज गति से चलते। कई लेबर होते जो जले कोयले को बाल्टी के जरिए बायलर से निकाल दूसरी ओर रखते जाते।

पुल से गुजरते हुए गंगा के नाद को ढूंढते हैं मुसाफ़िर
पुल से गुजरते हुए गंगा के नाद को ढूंढते हैं मुसाफ़िर

पापा ने मुझे जहाज के कप्तान का केबिन भी दिखलाया था और अपने साथ जहाज के पीछे बने डेक पर भी घुमाया था। पानी के कटते धारों को देख मेरे आनंद का पारावार न था। वापसी के वक्त मैने पूछा था कि क्यों आने में एक घंटे 10 मिनट और लौटने में डेढ़ घंटे। तब मैने जाना कि लहरों के विपरीत जाना मुश्किलों भरा काम है। गंगा की धारा पहलेजा से महेंद्रू की ओर बहती है।

34 साल बाद गंगा के ऊपर बने इस पुल से सफर करते हुए मैने देखा कि अब पहले वाली गंगा रही ही नहीं। सूखे् रेत के टीलों के बीच सिकुड़ी और सहमी सी गंगा को देख मन कचोट सा गया। कहां वो कलकल नाद, वो प्रवाह और कहां यमुना सी होती ये गंगा। मेरा मन एकबारगी मचल उठा गंगा के उस निनाद को सुनने के लिए। चलो 34 साल बाद फिर से पहलेजा देखा। क्या गंगा को भी फिर से देख पाऊंगी? इस गंगा को नहीं अपनी पुरानी गंगा को। मैं अगले 34 साल तक इंतजार को तैयार हूं। नमामि गंगे।


abhaya srivastavअभया श्रीवास्तव। गोरखपुर में पली-बढ़ीं। शादी के बाद पटना बना नया घर। इन दिनों दिल्ली से सटे गाजियाबाद में रहती हैं। साहित्य-संस्कृति में गहरी अभिरुचि।  


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4 thoughts on “यात्रीगण, पहलेजा घाट पर अब न ढूंढें पुरानी गंगा

  1. Abhya Ji

    Namaste

    1940-50 me chalne wali steamer ka nam kya tha.

    Vivekanand singh

  2. I was looking for these steamer pictures , thank you for the article, I remember there were 2 types, Bachcha Babu Steamer (from Bansghat I think) and India Railway steamer, I enjoyed both when I was kid, from Patna Jn. we used to take Tanga and got to Mahendru ghat and from Sonpure, take train and go to Pahleja. we used to go my hometown in summer vacation.

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