गांव शहर बना तो हम हिन्दू-मुस्लिम हो गए !

ज़ैग़म मुर्तज़ा क़रीब दो दशक पहले गांव जाना हमारे लिए अंतर्राष्ट्रीय पिकनिक से कम न था। हफ्ता भर पहले तैयारियां

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लेखकों का ‘आपातकाल’ और ‘फासीवाद’ बस हौव्वा है ?

संजय द्विवेदी देश में बढ़ती तथाकथित सांप्रदायिकता से संतप्त बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला वास्तव

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क़लम से ही क़ातिलों के सर क़लम करें लेखक

कुमार सर्वेश तेंदुआ गुर्राता है, तुम मशाल जलाओ। क्योंकि तेंदुआ गुर्रा सकता है, मशाल नहीं जला सकता। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

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काए गुड़िया नईं चिन्हो का?

कीर्ति दीक्षित काफी सोच विचार के बाद शहर के शोरगुल से दूर अपनी कलम को आवाज देने के लिए मैंने अपने

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