‘दादी’ के दर्शन और दादी से बिछड़ने का डर

‘दादी’ के दर्शन और दादी से बिछड़ने का डर

नीलू  अग्रवाल

उस लड़की ने हाथ पकड़ रखे हैं अपनी दादी के और मजबूती से पकड़ रखे हैं । मजबूती हाथों में नहीं दिल में है, उसने जैसे ठान ही रखा है कि वह नहीं छोड़ेगी उसका हाथ । कहीं छोड़ा तो वह उसे छोड़ कर चली न जाए, डरती है। ऐसा नहीं कि वह उससे बहुत ज्यादा प्यार करती है इसलिए ऐसा कर रही है बल्कि उसकी दादी उसके लिए वैसी ही है अभी, जैसे परदेस में किसी देशी का मिलना, जैसे शहर में अपने गांव वालों का मिलना या फिर छात्रावास में किसी रिश्तेदार का मिलना और वह लड़की छात्रावास में ही तो है जहां उसकी दादी उससे मिलने, नहीं-नहीं, खासकर उससे मिलने नहीं आई है। हर साल भादो की अमावस्या को राणी सती दादी की पूजा होती है यहां, राणी सती दादी के मंदिर में। और फिर, तीन-चार दिनों का मेला भी लगता है। उसी में आई है ।अब लड़की के बहाने दादी को ‘दादी’ के दर्शन हुए या ‘दादी’ के बहाने उसे दादी के दर्शन हुए, पता नहीं।

लड़की दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ती है यहां। इस अंदाज से आठ या नौ साल की होगी। पर रहती है या उसे रखा जा रहा है इस छात्रावास में, पढ़ाया जा रहा है इस विद्यालय में, जिसका नाम श्री राणी सती बालिका विद्यापीठ है। श्री राणी सती इसलिए कि विद्यापीठ के आगे राणी सती दादी का मंदिर है। मंदिर बनवाने वालों या उसमें दान पुण्य करने वालों ने ही यह विद्यापीठ और साथ में छात्रावास भी बनवाया था ।छात्रावास तो 5 बड़े-बड़े कमरों का ही है पर पर्याप्त है यहां के छात्र छात्राओं के लिए। हां, नाम में बालिका शब्द सार्थक नहीं है क्योंकि यहां छात्र भी रहते हैं और पढ़ते हैं, पर पांचवीं तक ही । जबकि  छात्राओं की पढ़ाई दसवीं तक की है। छात्रावास और मंदिर से लगे कुछ कमरे और भी हैं जहां धार्मिक अनुष्ठानों या शादियों में आए लोग रुकते हैं । (शादियां भी होती है यहां पर छात्रावास से थोड़ा हटकर )जब कभी इन अनुष्ठानों में आए लोगों के लिए यह कमरे कम पड़ जाते हैं तब छात्रावास के पांच कमरों में से अंतिम दो कमरे खाली करवा दिए जाते हैं। यह दिन छात्रावास में रहने वाले बच्चों के लिए मजे के होते हैं। खासकर जब मेला लगता है, क्योंकि उन्हें कुछ दिनों के लिए पढ़ाई से मुक्ति मिलती है और साथ ही आए -गए तरह-तरह के लोगों को देखते रहना उन्हें अच्छा लगता है।
लड़की के साथ उसका छोटा भाई भी है इस छात्रावास में जो कमरा नंबर 3 में रहता है और लड़की कमरा नंबर 2 में रहती है । या यूं कहिए उन्हें इन कमरों में रखा गया है और अब दादी का एक हाथ लड़की पकड़े हुए है, दूसरा हाथ उसका छोटा भाई पकड़े है । दादी को आए 2 दिन हो गए हैं अब जाना है उन्हें, पर इन बच्चों को देखकर शायद वह भी विह्वल हो रही हैं। बहुत से पहचान वाले और कुछ रिश्तेदार भी तो मिले थे उन्हें इन मेले में, पर अब सब जा चुके हैं इसलिए दादी को भी जाना है।
जिस दिन आई थी दादी, दोनों बच्चे बहुत खुश थे। दादी उन्हीं के छात्रावास के अंतिम कमरे में रुकी थी ।दादी के आने के बाद वे छात्रावास में हो कर भी नहीं थे दादी ने छात्रावास से उनके लिए दो दिनों की छुट्टी जो मांग ली थी। उसी के साथ रहते, खाते- पीते, रोते, हंसते, घूमते। घूमते मेले में, घूमते सड़कों पर, देखते स्वतंत्र घूमते लोगों को । दुकानें, बाजार वगैरह-वगैरह जो वे छात्रावास में कैद होने पर नहीं देख सकते थे। दो दिनों तक वे घूमे मेले में, हरेक माल की दुकानों में, खरीदी तस्वीरें, खिलौने, बाजे, खाया-पिया। अपनी दूर की बुआ के यहां भी दादी के साथ जाकर आए जो उसी कस्बे में रहती थी। गुजर गए दो दिन, पता भी नहीं चल पाया उन्हें । दादी को जाना तो दूसरे दिन ही था, पर बच्चों के कारण एक दिन और रुक गई थी। और आज तीसरे दिन की शाम भी हो गई थी, पर जाने नहीं दिया है । लड़की ने आज तो उन्हें जाना था आखिर दो ही दिन की छुट्टी तो ली थी बच्चों के लिए। और उन्हें कमरा भी तो खाली करना था इसलिए हाथ पकड़ रखा है बच्चों ने उनका और वह उन्हें ले जा रही हैं छात्रावास के उस कमरे की तरफ जहां वह ठहरी हुई थी। कमरे में पहुंचकर उन्होंने समझाया बच्चों को पर वे उनके जाने के नाम से फूट फूट कर रो पड़े आखिर में उन्होंने तसल्ली दी कि वह कहीं नहीं जाएंगी और खिला पिलाकर बच्चों को सुलाने की तैयारी करने लगी। उसने छोटे लड़के को सुलाने में जल्द ही सफलता पा ली। लड़की सोने को तैयार नहीं थी ।शायद उसे डर था दादी के चले जाने का पर दादी ने समझाया कि अब रात में वह कहां जाएंगी ।बात तो ठीक ही थी। धीरे-धीरे उसे भी नींद ने घेर लिया था काश ना आई होती उसे नींद, पर आ गई थी।
नींद में उसे प्रतीत हुआ कि कोई उसे खींच रहा है चलने पर मजबूर कर रहा है, वह चलना नहीं चाहती, लड़खड़ा रहे हैं उसके पैर, फिर भी खींच जैसे रहा है कोई उसे । आंखें खुलती है उसकी थोड़ी-थोड़ी । दिखाई देती है दादी, दिखाई देती है भाई के कमरे की वार्डन, दिखाई देता है भाई, जो दादी की गोद से वार्डन की गोद में दिया जा रहा है शायद। समझ में नहीं आता कि धीरे-धीरे क्या बातें हो रही है उनमें। आँखें फिर बंद हो जाती हैं। क्षण भर में फिर खुलती है लड़की की आंखें, पर इस बार उसे सिर्फ वार्डन दिखाई देती है दादी नहीं। झटके से खुलती है उसकी नींद। चिल्लाती है वह दादी….! दादी….! पर नहीं सुनाई देता है उसे दादी का वात्सल्य भरा जवाब। रोती है जोर -जोर से। रोती है ताकि दादी लौट आए पर अब कमरा नंबर तीन का दरवाजा अंदर से बंद हो चुका है। उसका भाई बड़ी निश्चितंता से सोया हुआ है। उसे नहीं पता जो धोखा उसके साथ हो गया है। वह रोती है, जोर-जोर से रोती है। ताकि भाई उठ जाए और उसे भी पता चले धोखेबाजी का। वह भी उठ कर जोर -जोर से रोए। तब शायद दादी लौट आए पर सुनाई देती है वार्डन की कर्कश आवाज। उसकी एक जबरदस्त डांट। बिना शोर मचाए चुपचाप अपने भाई के बगल में सो जाने की हिदायत। वार्डन की छड़ी की मार के डर से भाई के बगल में लेट गई है वह। बार-बार उठाती है अपने भाई को नींद से कि अगर यह बहुत रोया तो वार्डन हारकर शायद दादी को बुला लाए जो शायद अभी छात्रावास में ही होगी। और सुबह होते ही चली जाएगी उन्हें छोड़कर। वह उठता भी है पर उसे समझ में नहीं आता कि क्या हुआ है और वह फिर सो जाता है। ज्यादा आवाज करने से वार्डन लड़की को डांट पिला सकती है या मार भी सकती है। फिर से कैद हो गई है वह छात्रावास में। कैद हो गई है उसकी हंसी, उसकी खुशी। वह रो रही है, सुबक-सुबक कर वह रो रही है, उसे नींद भी आ रही है पर नहीं चाहती वह खुद को सोने देना। दादी अभी विद्यालय में ही होगी, क्या पता एक बार आ ही जाए पर अगर वह सो गई तो लौट जाएगी दादी। अभी छात्रावास में ही होगी इसलिए उसके थोड़े पास है पर अगर वह सो गई तो सुबह हो जाएगी और सुबह वह जा चुकी होगी उससे बहुत दूर। अब तो सुबह होने को आई, शायद चली गई होगी या जाने की तैयारी कर रही होगी… क्रूर दादी…! बिलक पड़ती है वह, और सोचती है कि सुबह अपने भाई को डाँटेगी, अगर उठ गया होता तो शायद, दादी न जाती।

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नीलू अग्रवाल। नीलू ने हिंदी साहित्य से एमए और एमफिल की पढ़ाई की है। वो पटना यूनिवर्सिटी से ‘हिंदी के स्वातंत्र्योत्तर महिला उपन्यासकारों में मैत्रेयी पुष्पा का योगदान’ विषय पर शोध कर रही हैं।

4 thoughts on “‘दादी’ के दर्शन और दादी से बिछड़ने का डर

  1. वाह!बाल्यावस्था के सुकोमल भावों और बुजुर्गों के स्नेह पर अतिशय निर्भरता के बीच शिक्षण, अलगाव का दुःख, छात्रावास के कठोर अनुशासन आदि को कुशलता से चित्रित किया गया है। एक सफल कहानी !

  2. नीलू जी की कहानी पढ कर मुझे मेरी दादी ( मामा ) याद आ गई । हां ,वही दादी जिसने मुझ अबोध मातृ – पितृ हीन बालक को अपने दम पर पाल- पोश कर बडा किया। दादी का वह वात्सल्य आज भी दिल में संजोए हूं। 1975 मे वह तब मरी जब मै नयख – नया मास्टरी ज्वाईन किया था। लिहाजा मरते वक्त दादी को देख नहीं पाने का दुख हमेशा रहेगा। दादी की मौत की सूचना मुझे घर से 25 किमी दूर अपने कार्यरत विद्यालय मे एक विशेष दूत को भेजकर दी गई थी। जब मै आया तो मेरी दादी की लाश आंगन मे रखी मिलीः उसके मृत देह को देखा और महसूस किया ,मानो वह पूछ रही हो ,कहां चले गये थे मुझे छोड खर ? मै उसे क्या जवब देता ?

  3. वाह! बाल्यावस्था, छात्रावास का जीवन, बुजुर्गों के स्नेह पर निर्भरता, अलगाव का दुःख आदि का सुंदर चित्रण हो पाया है। बच्चों से पूछिए वे बच्चे होकर खुश नहीं हैं, आप कहते रहिए- “सबसे प्यारा बचपन”। वार्डन का डर प्रतीकात्मक रूप में प्रश्न खड़ा करता है ।

  4. अतिउत्तम, हिन्दी की अलख जगाने वाले चंद शख़्सियत में आपका नाम भी शुमार है। सामर्थ्यनुसार अपना योगदान देते रहिये। आपसे मुलाकात का एक पल मिला था। अद्भुत ऊर्जा है।
    गाँव को अब बहुत कम ही साहित्यकार अपनी कथानक बनाते हैं। उम्मीद है गाँव से सम्बंधित अकूत लेखन अभी सामने आना शेष है। धन्यवाद्।

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