फिर बिखरेगा चंपारण का ‘नीला’ रंग!

फिर बिखरेगा चंपारण का ‘नीला’ रंग!

neel

पुष्यमित्र

भारत ने दुनिया को जो कुछ बेशकीमती तोहफे दिये हैं उनमें से एक प्राकृतिक नीला रंग नील भी है। आपको यह जानकर हैरत होगी कि 16वीं शताब्दी से पहले तक जब तक यूरोपियन भारत नहीं आये थे वे मूल रंगों में से सिर्फ दो रंग लाल और पीले का ही इस्तेमाल करते थे। जब ब्रिटिशर्स पहली दफा सूरत के बंदरगाह पर उतरे तो उन्होंने दो महीने के अंदर नील की कई पेटियां यूरोप भेजीं। वे इस रंग को देख कर चमत्कृत थे। जबकि भारतवासी सदियों पहले से इस रंग को बनाने की विधि जानते थे। उन्हें नील के पौधे की पहचान थी और उसे परिशोधित करने का तरीका भी आता था।

16वीं सदी के बाद ब्रिटिशर्स, पुर्तगालियों और फ्रांसीसियों ने भारत से भारी मात्रा में नील यूरोप भेजना शुरू किया। नील वहां इतना फेमस हो गया कि इसे इंडिया के नाम पर इंडिगो का नाम दे दिया गया। मगर इन व्यापारियों ने काफी वक़्त तक यह जाहिर नहीं होने दिया कि नील बनता कैसे है। हालात ये हो गये थे कि जर्मनों को यह लगने लगा कि नील एक खनिज पदार्थ है और वहाँ की सरकार ने नील की खुदाई की कोशिशें भी शुरू कर दीं।

बहरहाल बाद के दिनों में यूरोप के कई मुल्कों में नील उगाने की कोशिशें हुईं। मगर एक बार तो इस खेती को यह कह कर बन्द करा दिया गया कि हो न हो यह जहरीला पौधा है। नील का व्यापार इतना सफल रहा कि पलासी की जीत के कुछ साल बाद अंग्रेज अधिकारियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर बंगाल में नील की खेती करना शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में ब्रिटिशर्स इंडिगो प्लांटर बनने लगे। इन लोगों ने खेती तो शुरू कर दी मगर इनके खून में तो सिपाहियों और व्यापारियों का स्वभाव शामिल था। लिहाजा ये अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की कोशिश करते और इस कोशिश में किसानों और खेतिहर मजदूरों पर भरपूर जुल्म करते। रैयत समझ रहे थे कि ये लोग भरपूर पैसा कमा रहे हैं और उनकी बदहाली बढ़ती जा रही थी। इन किसानों पर होने वाले जुल्म की दास्तान पर उन दिनों बंगाल के एक पोस्ट मास्टर दीनबंधु ने ‘नील दर्पण’ नामक नाटक लिखा जो काफी मशहूर हुआ।

बहरहाल बंगाली किसानों ने नादिया जिले में विद्रोह कर दिया। कंपनी ने नील प्लान्टरों के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। प्लांटरों को बंगाल छोड़ कर बिहार के इलाके में आना पड़ा। यह 19वीं सदी के शुरूआती दशकों की बात है। बंगाल के बाद निलहे अंग्रेजों का ठिकाना बिहार के कोसी और मिथिलांचल का इलाका बना। मधुबनी का पंडौल इनका केंद्र बना और 1830 में वहां बड़ी फैक्टरी स्थापित हुई। धीरे-धीरे आस पास के इलाकों में कई फैक्टरियां खुलने लगी।

neel1मगर बहुत जल्द वहां के किसानों ने भी विद्रोह कर दिया। यह 1867 की बात है। विद्रोह जबरदस्त हुआ और निलहों को वह इलाका भी खाली करना पड़ा। 1880 में दरभंगा राज द्वारा यह घोषणा कर दी गयी कि उनके इलाके में नील की खेती नहीं की जायेगी। इस इलाके से उजड़े निलहों को सबसे मुफीद इलाका चम्पारण का लगा। वहां बेतिया राजघराना भारी कर्ज के बोझ से दबा था। वहां निलहों को खुली छूट मिल गयी और उस इलाके के 2220 गांवों में से 1938 गांवों को इन अंग्रेजों को पट्टे पर दे दिया गया। वहां इनकी मनमानी चलने लगी। वैसे चंपारण के किसानों ने भी इस अन्याय का प्रतिरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब तब विद्रोह होते रहे। 1908 में शेख गुलाब, राजकुमार शुक्ल और शीतल राय जैसे किसानों के नेतृत्व में बड़ा आंदोलन हुआ। लोगों ने नील की खेती छोड़ देने का संकल्प लिया। उस दौरान एक प्लांटर की हत्या भी कर दी गयी। मगर प्रशासनिक बल प्रयोग के जरिये उस आंदोलन को दबा दिया गया।

इस बीच 1896 में जर्मनों ने कृत्रिम नील तैयार कर लिया था और प्राकृतिक नील की मांग भी घटने लगी थी। मुनाफा कमाने के चक्कर में निलहे अंग्रेजों ने किसानों पर कई तरह के कर लगाने शुरू कर दिये। लिहाजा विद्रोह की आग भड़कती चली गयी। फिर प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ। जर्मनी से कृत्रिम नील आना बंद हो गया। भारतीय नील की कीमत फिर से आसमान छूने लगी। मगर यह कुछ ही सालों की बात थी। उधर युद्ध बंद हुआ, इधर गांधी चंपारण पहुंचे। अंततः नील की खेती और प्राकृतिक नीला रंग बनाने का भारतीय तरीका इतिहास बन गया।

हालाँकि आज जब इस बात को सौ साल पूरे होने वाले हैं एक बार फिर से प्राकृतिक नीले रंग और नेचरल डेनिम की मांग बढ़ने लगी है। वही जर्मनी जिसने आर्टिफिशल इंडिगो बना कर दुनिया को रासायनिक रंगों का आदी बनाया था उसने अपने देश में रासायनिक रंगों को बैन कर दिया है। दूसरे यूरोपीय मुल्क भी उसी नक़्शे कदम पर हैं। ऐसे में इंडिगो की मांग फिर से बढ़ने लगी है। इस रंग की मांग हेयर डाय मार्केट में भी है। वहां भी अब केमिकल रंगों को पसंद नहीं किया जा रहा। दक्षिण भारत के कई इलाकों में नील की खेती फिर से होने लगी है। कुछ साल पहले बिहार के मुजफ्फरपुर के एक सज्जन ने भी यहां नील उगाने और प्राकृतिक नीला रंग तैयार करने की कोशिश की थी। मगर उन्हें सफलता नहीं मिली। मगर हो सकता है कोई और सफल हो जाये और हमारा नील एक बार फिर से हमारे इलाके की नयी उम्मीद बन कर लौटे। इस बार सकारात्मक रूप में उसकी वापसी हो।

PUSHYA PROFILE-1


पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।