ये मूर्खता के भूमंडलीकरण का दौर है !

ये मूर्खता के भूमंडलीकरण का दौर है !

राकेश कायस्थ/

पिछले पांच साल में इस देश में प्रति मिनट जितने शौचालय बने हैं, उन्हें अगर जोड़ा जाये तो शौचालयों की कुल संख्या शायद देश की आबादी से भी आगे निकल जाएगी। इसके बावजूद आपको कई लोग ऐसे मिल जाएंगे जो कहीं और नहीं बल्कि आपके वॉल पर बैठकर ‘हगने’ को आमादा हैं। कई बार तो ऐसे लोग कतार में नज़र आते हैं। आखिर क्या वजह है इसकी?
बात चौकाने वाली लग सकती है लेकिन कारण वैश्विक है। यह एक लंबी बात है लेकिन इसे पूरी करने में मैं यथासंभव कम शब्दों का इस्तेाल करूंगा। बहुत पीछे नहीं जा रहा लेकिन पिछले डेढ़-दो सौ साल का इतिहास बताता है कि `विश्वगुरू’ राजनीतिक और आर्थिक विचारों के मामले पूरी तरह से पश्चिम पर निर्भर रहा है। यानी पश्चिम में जो कुछ भी अच्छा या बुरा होगा वही भारत में भी दोहराया जाएगा।

शुरुआत राष्ट्रीय आंदोलन से करते हैं। महात्मा गांधी, नेहरू और पटेल जैसे इसके ज्यादातर बड़े नेता इंग्लैंड में पढ़े थे। बताने की ज़रूरत नहीं कि राष्ट्रीय आंदोलन के लगभग सारे नेता ( हालांकि गांधी में एक तरह की मौलिकता थी) पश्चिम में चल रहे राजनीतिक विचारों से प्रभावित थे, जिनमें लोकतंत्र और लोक-कल्याणकारी राज्य सर्वोपरि थे।  जिस वक्त अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ संघर्ष ने जोर पकड़ा उसी वक्त सोवियत क्रांति हुई। ज़ाहिर है स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े लोगों पर इसका काफी असर हुआ। रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे तमाम क्रांतिकारी घोषित तौर पर इसी बोल्शेविक क्रांति से प्रेरणा लेते थे। जो आरएसएस आज इन क्रांतिकारी नेताओं से नाता जोड़ने की कोशिश कर रहा है, वह दरअसल बीसवीं सदी में चल रही तीसरी वैश्विक विचारधारा यानी हिटलर और मुसोलिनी के फासिज्म से प्रभावित था। कहने का मतलब यह है कि अच्छे या बुरे सारे सारे राजनीतिक विचार भारत में पश्चिम से ही आये हैं। बीजेपी जिस कथित राष्ट्रवाद को लेकर छाती पीटती है वह मूल रूप से एक यूरोपियन राजनीतिक विचार है। 

अगर 1988 से 90 के बीच सोवियत विघटन ना हुआ तो क्या भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू होती? सोवियत विघटन के बाद दो ध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक बदल गई। दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा अमेरिकी कंपनियों के लिए खुल गया। जाहिर है, उसे भुनाने के लिए ग्लोबलाइजेशन का नारा बुलंद हुआ। भारत ने भी ग्लोबलाइजेशन का झंडा थाम लिया।
अब दुनिया के अमीर मुल्कों और उनके राजनेताओं के पास कोई नया राजनीतिक या आर्थिक विचार नहीं है। इसलिए उन्होंने एक अनोखा काम किया जिसकी हिम्मत पहले किसी ने नहीं की थी। यह अनोखा काम है- सामूहिक जड़ता या मूर्खता को पॉलिटिकल कैपिटल में तब्दील करना। जी हां यह दौर मूर्खता के भूमंडलीकरण का है। इंस्टेंट सॉल्यूशन वाले नेताओं की नई नस्ल की आमद पूरी दुनिया में एक साथ हुई है। जिनके पास सिर्फ असंभव से दावे हैं। ट्रंप ने कहा अमेरिका फर्स्ट तो दुनिया भर के बाकी नेताओं ने भी अपनी-अपनी पतलून संभालते हुए कहा–हम भी फर्स्ट।
अमेरिका से लेकर टर्की और ब्रिटेन से लेकर रूस तक हर जगह के नेता अपने कोर वोटर को नफरत का इंजेक्शन लगा रहे हैं।

जाहिर है विश्वगुरू पीछे कैसे रहेगा, वह तो हमेशा आगे ही रहा है। यह नशा इतना तगड़ा है कि समर्थकों को किसी और चीज़ की ज़रूरत ही नहीं। अब से कुछ साल पहले तक दुनिया के तमाम नेता कोई भी ऐसी बात कहने से बचते आये थे जिससे पढ़े लिखे लोगों के बीच उनका मजाक उड़े। अब पढ़े-लिखे लोग अगर मजाक उड़ाये मतलब नेता के कामयाब होने की गारंटी है।
आज से बीस साल पहले का दौर याद कीजिये। पान की दुकान पर खड़े मिश्राजी, गुप्ताजी और यादवजी किसी अहम मुद्दे पर चर्चा कर रहे होते थे। अचानक कोई चौथा टपक पड़ता था। उसे फौरन डपट दिया जाता था- अगर पता नहीं हो तो मत बोलो। मौजूदा राजनीति का निवेश इसी चौथे आदमी में है। यह चौथा आदमी पूरी दुनिया में सर्वशक्तिमान है और यही आपके वॉल पर बैठा सुबह-शाम हग रहा है।  ताकतवर होने का एहसास पहली बार आया है, इसलिए वह सबकुछ उसी तरह रौंदने को आमादा है, जिस तरह यूपी की खेतों को सांड़ रौंद रहे हैं। सहमति-असहमति तो वहां होती है, जहां विचार करने की क्षमता और तर्क होते हैं। यह ताकतवर चौथा व्यक्ति इस तरह गुस्से में है, जैसे वह गदहा अश्वमेध यज्ञ के लिए निकला हो और आपने उसका घोड़ा रोक दिया हो। 

अमेरिका में ट्रंप चिल्लाता है– जिसे यह देश पसंद ना हो, वह निकल जाये। उसके अगले दिन एक भारतीय पुजारी पर जानलेवा हमला होता है। यह वही ट्रंप है जिसकी ताजपोशी के लिए भारत में यज्ञ हुए थे। कहने का मतलब यह है कि यह चौथा व्यक्ति अपनी पूंछ में आग लगा चुका है और अब लंका ढूंढने निकला है। अगर लंका ना मिली तो अपने घर में ही आग लगा देगा क्योंकि कुछ ना कुछ जलाना ही है। इसलिए अपने वॉल पर बैठकर हग रहे लोगो को देखकर यह मान लीजिये कि यह एक ग्लोबल इंपैक्ट है। भारत के पास वैश्विक प्रभावों का कभी कोई तोड़ नहीं रहा है। जब पेट्रोल की कीमत से लेकर शेयर बाज़ार के उतार-चढ़ाव तक सबकुछ ग्लोबल इंपैक्ट से तय होते हैं तो फिर आप हगने वालों को कैसे रोक सकते हैं? तकलीफ हो तो नाक पर रूमाल रख लीजिये।

राकेश कायस्थ।  झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ। टीवी टुडे,  बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आप ने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों एक बहुराष्ट्रीय मीडिया समूह से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ और ‘प्रजातंत्र के पकौड़े’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।