बचवा, रोज सबेरे मुंह धोके एगो ढूंढी खात रइ ह

बचवा, रोज सबेरे मुंह धोके एगो ढूंढी खात रइ ह

उर्मिलेश उर्मिल के फेसबुक वॉल से

माई की आज (28 अगस्त) पुण्यतिथि है। उसे गये आज पूरे 15 साल हो गये। बाबू यानी पिता जी तो बहुत पहले, सन् 1985 में ही दिवंगत हो गये थे। तब मैं एमफिल करके रोजगार खोज रहा था। बचपन की एक-एक बातें याद हैं, सुबह-सुबह कैसे वह स्कूल जाने के लिए जगाती थी। गोइंठा या लकड़ी की आंच वाले मिट्टी के बने चूल्हे पर रोटियां सेकती। क्या स्वाद होता था, उस खाने का। बाबू कई बार चोखा बनाने में जुट जाते।

सर्दियों में कई बार मुझे खुश करने और आलस्य तोड़ने के लिए मां अपने ही खेत से ताजा निकले आलू को बोरसी की आग में भून कर देती। साथ में थोड़ा घी, थोड़ा गुड़। बचपन में वह मेरा प्रिय खाद्य था। माई अक्षर ज्ञान से वंचित थी। पर उसकी समझ समुन्नत थी। वह बाबू के साथ मिलकर, पहले बड़े भाई और फिर मुझे सुशिक्षित, सक्रिय और स्वस्थ बनाने में जुटी रहीं। जब मैं कुछ बडा़ हुआ तो भाई साहब, जो उन दिनों बलिया के सतीशचंद्र महाविद्यालय में लेक्चरर थे, के साथ रहकर बलिया में पढने गया। फिर कुछ साल बाद छात्रवृत्ति पाकर पहली बार होस्टल में रहने लगा तो वहां के लिये भी मां अलग-अलग ढंग की ढूंढी (देसी पकवान ) बनाकर देती। कहती- ‘बचवा, रोज सबेरे मुंह धोके एगो ढूंढी खात रइ ह, महीना भर चल जाई’ पर जिसे हम और हमारे दोस्त महज दो-तीन दिन में चट्ट कर जाते!

अमीर घरों से आये मेरे कई दोस्त, जो अपने साथ लड्डू और तरह तरह की मिठाइयां लाते, वे भी सर्दियों में मेरी माँ की बनाई ढूंढी का इंतजार करते। इंटरमीडिएट तक यह सिलसिला चला। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गया तो पहले के मुकाबले गांव आना-जाना कुछ कम हो गया। सिर्फ लंबी छुट्टी में ही जाना होता। लेकिन उन दिनों भी, खासकर सर्दियों में मां की ढूंढी वाली पोटली तैयार रहती। घर की खराब आर्थिक हालत के बावजूद लौटते समय वह कुछ रुपये भी देती। मैं कहता, जरुरत नहीं है, काम चल रहा है, पर वह नहीं मानती। बचपन की ऐसी बहुत सारी यादों के साथ, मां तुझे सलाम। श्रद्धांजलि।


उर्मिलेश। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक । पत्रकारिता में करीब तीन दशक से ज्यादा का अनुभव। ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘हिन्दुस्तान’ में लंबे समय तक जुड़े रहे। राज्यसभा टीवी के पूर्व कार्यकारी संपादक। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता करने में मशगुल।