वक्त ने मंदरा को मार डाला… मनु की यादों में आज भी जिंदा है

वक्त ने मंदरा को मार डाला… मनु की यादों में आज भी जिंदा है

मंद पड़ गया मंदरा का बाजार। फोटो- मनु पंवार, वरिष्ठ पत्रकार।

पौड़ी: गांव के बुजुर्ग गुजर गए तो उनके साथ-साथ अनूठा हुनर भी जाता रहा। जैसे, हमारे गांव में कभी ये ‘मंदरा’ बुनने वाले लोग थे। मंदरा एक तरह की चटाई है, लेकिन चटाई से काफी भिन्न है। यह हमारे पहाड़ में ग्रामीण हस्तशिल्प का बेजोड़ उदाहरण रहा है। अब इतिहास हो गया। बाज़ार ने बड़ी निर्ममता के साथ इन्हें चलन से बाहर कर दिया। अगली पीढ़ी ने भी हाथ की कारीगरी वाली इस कला को अपनाने में कोई दिलचस्पी नहीँ दिखाई।

मंदरा गेंहू के तने से बनता है। तने की छाल (बाहरी त्वचा) को अलग करके उसके अंदर के हिस्से को भीमल की रस्सी से बुना जाता था। बचपन की याद है। हमारे गांव में 4-5 परिवार मंदरे बुना करते थे। मंदरा कई काम आता था। शादी-ब्याह में, मेहमाननवाज़ी में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता। इस पर किसी मौसम का असर नही पड़ता।

हमारे गांव में अब न मंदरा रहा, न मंदरा बुनने वाले। पूरे गांव की खाक छानने के बाद मुझे एक जगह ये सौगात मिली। मंदरा के हुनरमंद दिवंगत कृपाल सिंह रावत के बेटे गंभीर सिंह रावत ने ये छोटा मंदरा अपने पिता की आखिरी निशानी के तौर पर मुझे भेंट किया। मैं उनका आभारी हूँ।

गांव की यात्रा में मुझे ऊँची नाक वाला टमाटर भी मिला जो हमारे घर की खेती में बरामद हुआ।

ये तस्वीरें भी हमारे गांव की हैं। ढलाऊ छत वाले मिट्टी-पत्थर के ऐसे मकान हमारे पहाड़ी गांवों की ख़ास पहचान रहे हैं। इनकी सबसे बड़ी खासियत तो ये है कि ये बर्फीले/सर्द मौसम में भी आपको गुमटी (गर्माहट) देते हैं। मिट्टी के फर्श तापमान को मेन्टेन किये रखते हैं, चाहे सर्दी हो या गर्मी। ढलाऊ छत पर पठाल लगी है। किसी चट्टान को तोड़कर उससे इन पठालों को तराशा जाता रहा है। लकड़ी की मोटी-मोटी और गोलाकार बल्लियों और फट्टों को बिछाकर छत और फर्श तैयार किये जाते हैं। ऐसे घरों के निर्माण हमारे गांवों में सामुदायिकता की शानदार मिसाल भी रहे हैं।

फोटो- मनु पंवार, वरिष्ठ पत्रकार।

किसी का ऐसा मकान बनता था तो उसमें पूरे गांव की भागीदारी होती थी। दूर जंगल में काटे गए पेड़ की मोटी बल्लियां कंधे और सिर पर ढो कर लाना, पत्थरों और मिट्टी की ढुलाई, पानी की व्यवस्था सब कुछ लोग मिलजुल कर करते थे। कुछ घरों में तो ऐसी ज़बरदस्त शिलायें लगी हैं, जिनको देखकर पुरखों के पुरुषार्थ को नमन करने का मन करता है। इन घरों को बनाने वाला मिस्त्री प्रायः दलित होता था। भवन निर्माण की ये बेजोड़ शैली रही है।

हमारे यहां ऐसे घर बनने अब लगभग बंद हो गए हैं। तर्क ये है कि उनमें मेहनत और समय बहुत लगता है। कुल मिलाकर श्रमसाध्य है। लिहाजा इनकी जगह सीमेंट, कंक्रीट, ईंट वाले घर लेते जा रहे हैं। लेकिन ये घर पहाड़ के मिजाज के कतई अनुकूल नहीं हैं। सीमेंट-कंक्रीट वाले घर गर्मियों में गरम और सर्दियों में चस्से (बेहद ठंडे) होते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार मनु पंवार की गांव यात्रा की तस्वीर।

मनु पंवार, वरिष्ठ पत्रकार ।