कश्मीर और संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को समझिए

कश्मीर और संघ के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को समझिए

फाइल फोटो

दिवाकर मुक्तिबोध

5 अगस्त 2019 को भारतीय जनता पार्टी सरकैर ने संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 के उन प्रावधानों को हटा दिया, जो भारत के साथ उसके विलय के समय संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किये गये थे। आर्टिकल 370 के इन प्रावधानों को हटाये जाने से पहले भी और आज भी जम्मू और कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग था और है, लेकिन अब वह राज्य नहीं रह गया है बल्कि इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बदल दिया गया है। ऐसे में प्रक्रिया पर सवार उठाने के साथ कश्मीर की समस्या को समझना भी जरूरी है ।

कश्मीर के बाहर की राजनीतिक पार्टियों और जनता के एक बड़े हिस्से की नज़र में कश्मीर की तीन समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद जिसे पाकिस्तान की मदद से चलाया जा रहा है। दूसरा है कश्मीर की मुस्लिम आबादी के अंदर बढ़ती अलगाववादी प्रवृत्ति जो आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है और तीसरा है विकास जो आतंकवाद और अलगाववाद के कारण भारत सरकार करने में अक्षम है। यह कहा जा रहा है कि अब आतंकवाद पर अंकुश लगेगा, अलगाववाद खत्म होगा और विकास के लिए अनुकूल माहौल और बेहतर परिस्थितियां बनेंगी क्योंकि जम्मू और कश्मीर के बाहर के निवेशक राज्य के विकास के लिए उद्योग लगायेंगे जिससे रोजगार बढ़ेगा और राज्य की तरक्की होगी। 
आर्टिकल 370 और 35 ए को हटाने से पहले पूरी कश्मीर घाटी से कश्मीर के बाहर के पर्यटकों को तत्काल कश्मीर छोड़ने का आदेश दिया गया। अमरनाथ यात्रा बीच में ही रोक दी गयी और तीर्थयात्रियों को बीच से ही वापस अपने घर लौटने के लिए कहा गया। पूरी घाटी में पैंतीस हजार अतिरिक्त् अर्धसैनिकों की तैनाती की गयी। इंटरनेट और टेलीफोन सेवा पर रोक लगायी गयी और वहां के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार कर लिया गया। धारा 144 लगा दी गयी। जाहिर है कि घाटी की जनता की पूरी घेराबंदी कर दी गयी कि वे अपने घरों से बाहर न निकल सकें।

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प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों किया गया। अगर भाजपा सरकार द्वारा उठाये गये कदम वहां की जनता के हित में थे तो फिर जनता को अपनी खुशी को व्यक्त करने का अवसर तो दिया जाना चाहिए था। लेकिन यह सरकार अच्छी तरह से जानती है कि ये कदम कश्मीर की जनता के पक्ष में नहीं बल्कि उनके विरोध में, उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने के लिए उठाये गये हैं। यहां तक कि उन राजनीतिक संगठनों के विरोध में है जो जम्मू और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं और विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में भाग लेकर अपने प्रतिनिधि भेजते रहे हैं। जाहिर है कि उन्हें भी और कश्मीर की संपूर्ण जनता को भी उन आतंकवादियों के साथ एक ही कोष्ठक में डाल दिया गया है जो कश्मीर को आज़ाद देखना चाहते हैं या भारत की बजाए पाकिस्तान में विलय करवाना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में अलगाववाद कैसे खत्म होगा और आतंकवाद पर कैसे अंकुश लगेगा। इसके विपरीत भाजपा के इन कदमों ने अलगाववाद को न केवल बढ़ावा देगा बल्कि आतंकवाद की ज़मीन को और पुख्ता करने में मददगार होगा। 

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भाजपा सरकार द्वारा कश्मीर पर उठाये गये कदमों को संघ के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है जिसका मकसद धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग करना है। चाहे मसला, गोमांस या गोतस्करी का हो या लव ज़िहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मकसद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत और घृणा भर दें कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सके और मौका लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाएं। हिंदू यह मानने लगे कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई कदम उठाया गया है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाए और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य है, यह हिंदू अपने दिमागों में बैठा लें। इसके लिए वे दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

पहला- कश्मीर के मुसलमान जो उनकी नज़र में अलगाववादी हैं और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और दूसरे, वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसकी शुरुआत असम से हो चुकी है जहां चालीस लाख से ज्यादा लोगों की नागरिकता खतरे में बतायी जा रही है और जैसाकि अमित शाह कह चुके हैं नागरिकता पंजीकरण का यह अभियान पूरे देश में चलाया जाएगा और सभी जिलों को कह दिया गया है कि वे अपने यहां ऐसे लोगों को जो अपनी नागरिकता साबित न कर पाते हैं उन्हें नज़रबंदी शिविर में रखा जाना चाहिए। विडंबना यह है कि मुसलमानों के अलावा शेष सभी समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता प्रदान करने का कानूनी प्रावधान भी कर दिया गया है लेकिन कोई मुसलमान अगर यह साबित नहीं कर सका कि वह भारत का नागरिक है और कई पीढ़ियों से भारत में रह रहा है तो भी उसे नजरबंदी कैंपों में रहना होगा। ये नजरबंदी कैंप कब हिटलर के यातना शिविर में तब्दील हो जायेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार पूरे देश में मुस्लिम आबादी के लिए दो तरह के नज़रबंदी शिविर स्थापित करने की पूरी तैयारियां की जा चुकी हैं। एक, प्रत्येक जिले में उन मुस्लिम नागरिकों के लिए जिनके पास अपनी नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। जाहिर है कि देश की गरीब और अशिक्षित आबादी के पास नागरिकता का प्रमाण होना न केवल मुश्किल है वरन अगर राशन कार्ड और वोटर लिस्ट में नाम होगा भी तो उसे स्वीकार करना या न करना उस नौकरशाही पर निर्भर करेगा जिसमें मुसलमानों के प्रति पूर्वग्रह का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। दूसरा पूरी कश्मीर घाटी नजरबंदी शिविर होने जा रही है जहां के बाशिंदे अब पहले से भी ज्यादा सेना और अर्धसैनिक बलों की छत्रछाया में जीने और मरने के लिए बाध्य होंगे। उनके पास भी नागरिकता का कोई अधिकार नहीं होगा और न ही उनकी तरफ से कोई आवाज़ उठाने वाला होगा। इन शिविरों के बाहर जो निम्नमध्यवर्ग और मध्यवर्ग की मुस्लिम आबादी बच जाएगी उनको राजनीतिक प्रक्रिया से पहले ही बाहर किया जा चुका है और उन पर होने वाले लगातार हमले उन्हें भय के माहौल में जीने के लिए मजबूर करेंगे। इस तरह संघ का बहुत बड़ा लक्ष्य जिसे किसी समय एम एस गोलवलकर ने शब्दबद्ध किया था, प्राप्त कर लिया जाएगा कि मुसलमानों को अगर इस देश में रहना है तो दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। 

हो सकता है कि फौरी तौर पर मुसलमानों की इस हालात को देखकर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जाएंगी उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे। देश पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीके हैं, उनसे निश्चय ही संकट और गहराता जाएगा तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफ़रत उनकी कोई मदद नहीं करेगी। यही नहीं संघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है वह ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफरत मुसलमानों से करता है उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है, आरक्षण की सुविधा दी है वह भी उनसे छीन ली जाए। यह न भूलें कि जब संविधान बन रहा था तब संघ ने उसका यह कहते हुए विरोध किया था कि जब मनु स्मृति है तो संविधान की क्या आवश्यकता।

सच्चाई यह है कि संघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है जिसे वे खत्म न कर सकें तो पूरी तरह से निष्प्रभावी जरूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है।  जाहिर है कि आज़ादी के बाद भारत के लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघीय संरचना पर इससे बड़ा हमला कभी नहीं हुआ है, आपातकाल में भी नहीं।

diwakar muktibodh

दिवाकर मुक्तिबोध। हिन्दी दैनिक ‘अमन पथ’ के संपादक। पत्रकारिता का लंबा अनुभव। पंडित रविशंकर शुक्ला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। संप्रति-रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।