‘जयश्री राम’ ना हो जाए जेएनयू की गरिमा

‘जयश्री राम’ ना हो जाए जेएनयू की गरिमा

प्रेमकुमार मणि के फेसबुक वॉल से साभार

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में 5 दिसम्बर को सुबह 9 बजे आरएसएस संरक्षित स्वदेशी जागरण मंच की श्रीराम मंदिर संकल्प रथयात्रा जत्थे ने प्रवेश किया और हलचल मचा दी । कोई घंटे भर परिसर में इस जत्थे या जुलूस ने मार्च किया और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर जमकर नारेबाजी की।  जुलूस और नारेबाजी जेएनयू के लिए आम बात है। नयी बात है, आरएसएस के जत्थे का वहां घुसना और अपने वर्चस्व को प्रदर्शित करना। इसे भी मैं स्वाभाविक मानता हूँ । मुल्क पर जब संघ की हुकूमत है, तब जेएनयू तो उसके भीतर ही है न ! जेएनयू उस प्रभाव से भला कैसे बच सकता है।

पता नहीं क्यों मुझे पुराने नालन्द महाविहार के पतन का इतिहास स्मरण आ रहा है। उत्तरभारत में तुर्क सल्तनत राज स्थापित हो जाने के बाद बख्तियार खिलजी की फौजी टुकड़ी इसी तरह अंगड़ाइयां लेती, चौकड़ी मारती नालंदा विश्वविद्यालय में घुसी होगी । शायद वह जत्था जय श्रीराम की जगह अल्ला हो अकबर के नारे लगा रहा होगा, फिर किताबें-ग्रन्थ आग के हवाले हुई होंगी । एक भिक्षु मुश्किल से प्रमाणवार्तिकम की प्रति बचाता-छुपाता भगा जा रहा होगा । मध्यकालीन इतिहास के विविध रूप मेरे स्मरण-पटल पर वैसे ही घुड़दौड़ मचा रहे हैं,जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में कृष्ण और शल्य के रथ। फिर इसी उद्विग्नता के बीच आधुनिक ज़माने के एक दार्शनिक से जा टकराया । नीत्शे कहता था मनुष्य यदि महामानव नहीं बना तो वह फिर उलटकर बंदर बन जायेगा। हम आगे नहीं जायेंगे तो उलटकर पीछे तो जा ही सकते हैं । जीवन में पीछे घूमकर देखना कभी-कभार अच्छा लगता है । मधुशाला के कवि हरिवंश राय बच्चन को भी  ‘विगत स्मृतियाँ ‘ भाती थीं । बहुत से लोग हैं जो वर्तमान की समस्याओं के समाधान तो नहीं ढूंढ सकते, इतिहास की समस्याओं के समाधान अवश्य ढूँढ लेते हैं । तो लब्बो-लुबाब यह कि जेएनयू में जय श्री राम हो गया । शायद यह उस विश्वविद्यालय का जय श्रीराम होना भी है ।

नेहरू की बिटिया और उनके प्रशंसकों ने बड़े अरमान के साथ वह यूनिवर्सिटी बनवाई थी । इसके पीछे एक सपना था,  गौरवशाली इतिहास के पुनरुत्थान का सपना । संघ और सावरकर की तरह नेहरू भी इतिहास प्रेमी थे । भारत का गौरवशाली अतीत उन्हें भी खींचता था । बुद्ध और अशोक पर वह फ़िदा थे । गुजरे हुए ज़माने के विद्वानों, गणितज्ञों, वैज्ञानिकों, दार्शनिकों पर उनने अपनी किताबों में विशद टिप्पणियां की हैं । अपनी किताब ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ का आरम्भ ही वह नालंदा-चर्चा से करते हैं। नेहरू के लिए प्राचीन भारतीय इतिहास का अर्थ राम -कृष्ण-शिव नहीं था, उनके लिए इतिहास का मतलब बुद्ध-अशोक-आर्यभट्ट था या फिर अश्वघोष-कालिदास-कबीर या फिर सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गाथाएं अथवा इतिवृत्त। सोमनाथ के पतन के कारणों को वह समझ सकते थे,लेकिन उसके पुनर-त्थान में उनकी दिलचस्पी नहीं हो सकती थी । हाँ , वह उन कारणों को समझना चाहते थे कि क्यों जब सुदूर यूरोप में ऑक्सफ़ोर्ड का निर्माण हो रहा था, तब हमारा नालंदा ध्वस्त किया जा रहा था। नालंदा या सोमनाथ को किसी आक्रमणकारी ने ध्वस्त जरूर किया था, लेकिन यह इतिहास का सामान्य पाठ है। विशेष पाठ है कि उसे हमारी कायरता ने ध्वस्त होने दिया था । इतिहास से हमारी राजनीति को सीखना यह है कि हम इतना मजबूत बनें कि फिर कोई हमारे सोमनाथ या नालंदा को ध्वस्त न करे ।

1955 में नेहरू ने नालंदा का विजिट किया । वह उसके खँडहर को देख भावुक हो गए । उनने उसी स्तर के एक आधुनिक विश्वविद्यालय की परिकल्पना की । मित्रों को बतलाया। बाद के समय में राजनीतिक व्यस्तताओं और फिर चीन के आक्रमण ने इस परिकल्पना को पीछे धकेल दिया। 1964 में नेहरू की मौत हो गयी, जब इंदिरा प्रधानमंत्री बनीं तब उन्हें एक बार फिर पिता के अरमानों का ख़याल हुआ .।नतीजतन 1969 -70 में जे एन यू की स्थापना हुई। इसकी पुरानी इमारतों में नालंदा के स्थापत्य और ईंटों की परछाई आप देख सकते हैं .जल्दी ही यह विश्वविद्यालय संसार भर में प्रसिद्ध हो गया । इसके अकादमिक स्तर ने नालंदा की स्मृतियाँ ताज़ा की,  लेकिन आधुनिक ज़माने में कोई यूनवर्सिटी गाय-गोबर और राम-रहीम को तो स्थापित कर नहीं सकती थी। अतएव दकियानूसी तत्वों का बिदकना स्वाभाविक था । यह यूनिवर्सिटी लाहौर में होती तो मुस्लिम कठमुल्ले अल्ला-हो अकबर करते घुसते और इसकी गरिमा ध्वस्त करते , दिल्ली में है तो संघी -बजरंगी जय श्रीराम कर इसे ध्वस्त कर रहे हैं ।

हम क्या कर सकते हैं ? बस यही सोच सकते हैं कि आज भी हम उतने ही कायर हैं जितने उस वक़्त थे जब नालंदा को ध्वस्त किया जा रहा था । बख्तियार खिलजी की औलादें आज फिर चौकड़ी मार रही है और हम तमाशबीन हैं । शायद कायरता हमें विरासत में मिली है ।