राजनीतिक गणित में बुरी तरह से उलझ कर रह गई हिन्दी

राजनीतिक गणित में बुरी तरह से उलझ कर रह गई हिन्दी

डॉ संजय पंकज

हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देकर सरकार भूल गई। १४ सितम्बर १९४९ से हर वर्ष हिन्दी दिवस मनाने की जो औपचारिकता शुरू हुई वह एक सरकारी परम्परा बन गईं। सरकारी महकमों, प्रतिष्ठानों, विद्यालयों, महाविद्यालयों , बैंकों, निजी उपक्रमों में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। हिन्दी सप्ताह,पखवाड़ा और मास तक मनाया जाता है। चर्चा होती है, हिन्दी में काम करने का संकल्प लिया जाता है, बहसें भी खूब होती हैं। जलसे के नाम पर कवि-सम्मेलन होता है, हिन्दी लेखकों को सम्मानित किया जाता है। यह सब हो कोई हर्ज नहीं है लेकिन हिन्दी के लिए स्वभाव तथा संस्कार में ऊर्जा एवं निष्ठा रच-बस जाए इसका पूरा ध्यानऔर अभ्यास सजग संकल्प होना जरूरी है। वैसे सच्चाई यह भी है कि नववर्ष मनाने के उत्साह की तरह हिन्दी सेवा का संकल्प भी उतरता चला जाता है। संकल्प भूलकर ओढ़ ली जाती है उसी अंग्रेजी परस्त मानसिकता की चादर। अवचेतन में बैठी हुई गुलामी याद दिलाती है कि अंग्रेजी शासन की भाषा है और उस शासन की शक्ति हिन्दी मिजाज को दबाती है। हिन्दी- हीनता की ग्रंथि से उबरे बिना हिन्दी को सिरमौर बनाना बहुत दूर तक संभव नहीं है।

हिंदी दिवस विशेष-एक

स्वतंत्रता प्राप्ति के कई दशकों के व्यतीत हो जाने के बाद भी हिन्दी को अपने देश में जो व्यापक और व्यावहारिक स्वीकृति मिलनी चाहिए थी ; नहीं मिली। जबकि ऐतिहासिक सच है कि स्वतंत्रता आंदोलन के जन जागरण के लिए हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में सर्वमान्य सहमति मिली थी और यह निर्णय सफल भी हुआ था। तब हिन्दी भाषा का कोई विरोध नहीं हुआ था। हिन्दी जनसंपर्क की भाषा हो यह विचार अहिन्दी क्षेत्र के अधिसंख्य नेताओं ने ही दिया था जिसका समर्थन बुद्धिजीवियों के साथ साथ जनता ने भी किया था। यह तथ्य सर्वविदित है लेकिन स्वतंत्रता के बाद एकत्व का भाव धूमिल पड़ने लगा, अखंडता की निष्ठा पाखंड की भेंट चढ़ने लगी, राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण भाषाई द्वन्द्व खड़ा हो गया और परिणाम यह हुआ कि हिन्दी फाइलों में राजकाज की भाषा बनकर बंद हो गई। आज तक भारत की अपनी घोषित राष्ट्रभाषा नहीं है। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है।

यह ठीक है कि विशाल भारतीय जनमानस में हिन्दी समादृत है मगर कोई सरकार इसे संवैधानिक मान्यता देने में अंगद पाँव नहीं जमा रही है। राजनीतिक गणित में बुरी तरह से उलझ कर रह गई है हिन्दी। एक जलता सवाल है जिसका समाधान विशाल हिन्दी समाज उदारता से गैर हिन्दी भाषियों के साथ संवाद बनाकर कर लेगा ; समय भले ही जो लगे। हमारे हिन्दी के पूर्वज साधकों ,सेवियों और साहित्यकारों ने जैसा व्यापक प्रसार हिन्दी का किया है उस अनुपात में राजनीतिक पहल थोड़ी भी ईमानदारी से अगर होती तो हिन्दी का रोना हर वर्ष नहीं होता।


संजय पंकज। बदलाव के अप्रैल 2018 के अतिथि संपादक। जाने – माने साहित्यकार , कवि और लेखक।  स्नातकोत्तर हिन्दी, पीएचडी। मंजर-मंजर आग लगी है , मां है शब्दातीत , यवनिका उठने तक, यहां तो सब बंजारे, सोच सकते हो  प्रकाशित पुस्तकें। निराला निकेतन की पत्रिका बेला के सम्पादक हैं। आपसे मोबाइल नंबर 09973977511  पर सम्पर्क कर सकते हैं।