हीमा दास : लड़कियों की संघर्षगाथा

हीमा दास : लड़कियों की संघर्षगाथा

विभावरी जी के फेसबुक वॉल से साभार

सुनो लड़कियों! जब उसने दुनिया के किसी ट्रैक पर दौड़ कर पहली बार देश के लिए सोना जीता तो कुछ ‘क़ाबिल’ लोगों ने उसके अंग्रेज़ी ज्ञान को लेकर उसका मज़ाक बनाया। बिना यह समझे कि किसी भाषा विशेष का ज्ञान न होना उसके हुनर की राह का रोड़ा नहीं हो सकता। अगले साल उसने फिर से सोना जीता तो लोगों ने उसकी जाति ढूँढनी शुरू कर दी। उसने फिर सोना जीता और जीतती ही चली गई और महज बीस दिन की अवधि में अलग-अलग प्रतियोगिताओं में लगातार पाँच गोल्ड मैडल लेकर वह हम सब की चहेती बन गई।

इस कहानी का यह पक्ष दिखने में जितना दिलचस्प और चमकदार लगता है यकीनन दूसरा पक्ष बेहद उदास करने वाला और स्याह रहा होगा । इस कहानी में हमें जो नहीं दिखता वह उस लड़की और उसके परिवार का संघर्ष है। उसके फटे हुए जूते हैं, नंगे पाँव दौड़ती यह लड़की है। सही ख़ुराक और अच्छी ट्रेनिंग का अभाव है या फिर स्त्री होने की वे असंख्य सीमाएं जो शायद यहाँ गिनाई भी न जा सकें क्योंकि यह समाज हर क़दम पर नई संकीर्णताओं के साथ खड़ा होता है एक स्त्री के लिए।

अठारह उन्नीस साल की यह बच्ची जिसे अपनी सफ़लता को संभालने का सबक सीखना भी अभी बाक़ी है शायद अपने संघर्षों, जज़्बों और अपनी चमक के साथ उन तमाम लड़कियों के लिए सबक है जिन्हें कभी समाज तो कभी उनका आर्थिक परिवेश बेड़ियाँ पहनाता आया है।

मजरूह ने कहा था कभी,

“देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार 
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख” 
(ज़िन्दां=क़ैदख़ाना,रक़्स=नृत्य)

तुम ज़िन्दगी के गीत पर बेपरवाह होकर तभी थिरक पाओगी जब तुम्हारे पैरों में डाली गई बेड़ियों और तुम्हें क़ैद करने के लिए बनाई गई सलाखों को तोड़ने के पुख्ता इरादे तुम्हारे सपनों का हिस्सा बनेंगे। न सिर्फ़ तुम्हारे सपनों का हिस्सा बनेंगे बल्कि उन्हें सच करने के संघर्षों में भी तब्दील होते जायेंगे।

सच को सच कहने के जज़्बे से भरो ख़ुद को, लड़ना सीखो उन तमाम बेड़ियों से जो तुम्हें ‘लड़की’ बनाए रखना चाहतीं हैं क्योंकि कोई भी और, कभी भी तुम्हारे हिस्से का संघर्ष नहीं कर सकता। ज़िन्दगी भर तो कतई नहीं। इसलिए आत्मनिर्भर बनो, आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करो और याद रखो ये दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है पर इस उगने से पहले डूबना होता है अपने होने के संघर्षों में! बावजूद इसके कि न जाने कितनी हिमायें सही परिवेश, ट्रेनिंग और जज़्बे के अभाव में या तो टूट जाती हैं या फिर तोड़ दी जाती हैं, क्योंकि एक स्त्री का अपने जीवन में कुछ नया करने का संघर्ष दोहरा है। उस ‘नयेपन’ के लिए स्वीकृति बनाने के साथ-साथ उसे अपने स्त्री होने की तमाम सामाजिक और जैविक सीमाओं से भी लड़ना होता है तो तुम लड़ना, तुम डूबना, उगने के लिए।

इस बच्ची का एक इंटरव्यू देखते हुए जिसमें एंकर का उससे सवाल कि आप चौथे या पाँचवे नंबर पर थीं और अचानक आगे ही निकलती चली गईं…क्या यह आपका स्टाइल है? इस बच्ची का एक झिझक भरी मासूम मुस्कराहट के साथ जवाब कि “हाँ, ये मेरा स्टाइल है.” मन में बसा रह गया कहीं।मैं इस दुनिया में ऐसी अनगिनत हिमायें देखना चाहती हूँ…जो दौड़ती न हों…उड़ती हों…पर उनके पाँव हमेशा ज़मीन पर हों

तुम सबको ख़ूब ख़ूब प्यार सहित.

विभावरी/ यूपी के गोरखपुर की मूल निवासी, जेएनयू की पूर्व छात्रा , संप्रति ग्रेटर नोएडा के गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी में कार्यरत ।