आधी आबादी के हक़ की संघर्ष गाथा

आधी आबादी के हक़ की संघर्ष गाथा

आओ करें मंथन- कहीं हमसे कोई चूक तो नहीं हो रही!

 ब्रह्मानन्द ठाकुर

8  मार्च का दिन दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज से 107  साल पहले इसी दिन जर्मनी, डेनमार्क और स्विटजरलैंड में पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था। इसके बाद 1913  में रूस में और फिर पूरे विश्व में इस दिन को महिला आंदोलन के प्रेरणा दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। लिहाजा हमें इसके इतिहास के बारे में भी कुछ जान लेना जरूरी है ।

8  मार्च 1908  का दिन इतिहास में आज भी स्मरणीय है। इसी दिन  अमेरिका के न्यूयार्क शहर  में वस्त्र उद्योग में कार्यरत  हजारों महिला मजदूरों ने  वोट के अधिकार और वस्त्र उद्योग यूनियन बनाने की मांग को लेकर विशाल प्रदर्शन किया था। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की प्रणेता क्लारा जेट्किन ने इस प्रदर्शन से प्रभावित होकर 1910  में कोपेनहेगेन में दूसरे इन्टरनेशनल में एक प्रस्ताव लाया कि अमरीकी कामकाजी महिलाओं के प्रदर्शन दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया   जाए और प्रत्येक वर्ष  महिलाओं के समान अधिकारों के लिए संघर्ष के रूप में इस तिथि को मान्यता दी जाए। क्लारा जेट्किन का यह प्रस्ताव बहुमत से पारित हो गया।  इसका एकमात्र उद्देश्य है महिला-पुरुषों की समानता, इज्जत और मुक्ति हासिल करने वास्ते अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के संघर्षों से प्रेरणा लेकर  इस संघर्ष को सदैव आगे बढाते रहना ।  जाहिर है कि महिला मुक्ति का यह आंदोलन पूंजीवाद विरोधी समाजवादी  आंदोलन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। जब हम समाजवादी समाज व्यवस्था  की बात करते हैं तो सोवियत समाजवादी व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति में  आने वाले क्रांतिकारी परिवर्तन की चर्चा भी यहां जरूरी लगती है।

दुनिया के  देशों में समाजवादी सोवियत  संघ ने ही महिलाओं के समान अधिकार की स्थापना की थी। जार शाही रूस में महिलाओं को कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। उसकी स्थिति दासी के समान थी। वे वोट नहीं दे सकती थी सरकार और नागरिक संस्थानों के दरवाजे उसके लिए बंद थे। कामगार महिलाओं की दशा काफी दयनीय थी। महिलाओं के साथ-साथ नावालिग बच्चियों से  कठोर श्रम कराया जाता था। पुरुष की तुलना में उसकी मजदूरी भी काफी कम थी। वे न्यूनतम मानवाधिकारों से भी वंचित थीं। नवम्बर क्रांति के बाद पुरुषों के साथ सभी मामलों में महिलाओं को समान अधिकार प्रदान किए गये। रोजगार, मजदूरी, आराम, अवसर, सामाजिक सुरक्षा और शिक्षा के क्षेत्र में  पुरुषों के साथ उन्हें समान अधिकार दिया गया।

1928  से 1937  की दो पंचवर्षीय योजना की अवधि में कामकाजी महिलाओं की संख्या 30 लाख से बढकर 90  लाख तक पहुंच गई थी। 1897 की जनगणना के अनुसार जार शासित रूस में जहां 55  प्रतिशत महिलाएं बडे जमींदारों, पूंजीपतियों, व्यावसायियों और सरकारी अफसरों की दासी के रूप में काम कर रही थी, वहां क्रांति के बाद समाजवादी सोवियत संघ में 1936  में कुल कार्यरत महिलाओं में 39 प्रतिशत महिलाएं बड़े उद्योगों तथा निर्माण संस्थाओं में कार्यरत थीं  । 15  प्रतिशत दुकानों,परिवहन, खाद्य आपूर्ति संस्थानों में कार्यरत थीं। चिकित्सा और शिक्षण के पेशे में 20 प्रतिशत, गृह कार्य में 2  प्रतिशत और 24  प्रतिशत महिलाएं कल-कारखानों, विज्ञान या अन्य उद्योगों में कार्यरत थी। सामुदायिक रसोई और डिब्बाबंद खाने की व्यापक व्यवस्था ने गृहकार्य से बड़ी संख्या में महिलाओं को मुक्त कर दिया था। सामूहिक कृषि व्यवस्था ने भी महिलाओं को शोषण से मुक्ति दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। तब सोवियत संघ में  15  लाख महिलाएं ट्रैक्टर और कम्बाइन चालक के काम में नियुक्त थीं।  सोवियत महिलाओं के जीवन में यह बदलाव समाजवादी व्यवस्था के कारण ही सम्भव हो पाया।

आज हमारे देश को आजाद हुए 70 साल पूरे हो चुके हैं।  महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता, इज्जत और सम्मान की जिंदगी जीने के साथ-साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता का उनका सपना आज भी साकार होता नहीं दिख रहा है।  सामंती और पुरुष प्रधान समाज, मध्ययुगीन परम्पराएं, रुढियां, अंधविश्वास  आदि  से त्रस्त महिलाओं को मुक्ति नहीं मिल सकी है। इसका कारण स्पष्ट है कि आजादी आंदोलन के बाद  समझौतावादी धारा के समर्थक पूंजीपति वर्ग सत्ता मे आने के बाद निहित वर्ग स्वार्थ के कारण महिलाओं की मुक्ति की दिशा में ठोस कदम उठाने से हमेशा परहेज करता रहा। इतना ही नहीं, आजादी के बाद समस्याएं लगातार जटिल होती गईं है।  कन्या भ्रूण हत्या, अपहरण,बलात्कार, दहेज हत्या, देहव्यापार,  घरेलू हिंसा जैसी घटनाएं लगातार बढती जा रहीं हैं। आज नारी इतनी असुरक्षित हो गई है कि वह कहीं भी और किसी समय  अपहरण,  हत्या,दहेज हत्या और यौन उत्पीडन की शिकार हो सकती है। दुर्भाग्य से यदि किसी महिला के साथ ऐसी नृशंस घटना घटती है तो हमारे पुरुष प्रधान समाज में उसकी इतनी छीछालेदर होने लगती है कि उसके सामने  आत्महत्या के सिवा कोई दूसरा रास्ता ही नही बचता।

अब सवाल यह है कि आखिर इस नारकीय स्थिति से महिलाओं की मुक्ति कैसे सम्भव है ?  ऊपर इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि कैसे समाजवादी सोवियत संघ ने अपने देश की महिलाओं की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें  पुरुषों के समान इज्जत-  प्रतिष्ठा और आर्थिक आत्मनिर्भरता का अवसर उपलब्ध कराने के अपने ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह किया। ऐसा वहां सम्पत्ति पर  व्यक्तिगत स्वामित्व का पूरी तरह से खात्मा कर किया गया। इसी से महिलाओं  को वहां सही अर्थों में आजादी मिल सकी।  अपने देश के महिलाओं को भी पूरी गम्भीरता से सोंचना होगा। यदि वे वास्तव में पुरुष-शासित समाज के शोषण- उत्पीडन से स्थाई रूप में मुक्ति चाहती है तो उन्हें सम्पत्ति  को  व्यक्तिगत स्वामित्व से मुक्त कराने  और उसकी जगह सामाजिक स्वामित्व की स्थापना के संघर्ष में शामिल होकर पूंजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति को सफल बनाना होगा। ऐसा इसलिए भी कि  समाज की मुक्ति के साथ नारी मुक्ति का सवाल अभिन्न रूप से जुडा हुआ है। दोनो को एक-दूसरे  से अलग कर नहीं देखा जा सकता है।

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की प्रणेता क्लारा जेट्किन ने भी कहा था कि सर्वहारा महिला जगत  की पूर्ण मुक्ति केवल समाजवादी समाज में ही सम्भव है क्योंकि इसमें आर्थिक और आर्थिक सम्बंधों के विलोप के साथ ही सम्पत्तिवानो और सम्पत्तिहीनो, पुरुष और महिला तथा बौद्धिक और शारीरिक श्रम के बीच का द्वंद भी विलुप्त हो जाता है। इस प्रकार मुक्त श्रम वाले समाज में ही महिलाएं सम्मानपूर्ण जिंदगी जी सकेंगी।


ब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।