ग्रीस मेट्रो में ‘गायब पर्स’ और ‘जय हिंद’ के हिलोरे

ग्रीस मेट्रो में ‘गायब पर्स’ और ‘जय हिंद’ के हिलोरे

सच्चिदानंद जोशी

पुणे जाना था। हमेशा की तरह आफिस से निकलते निकलते देर हो गयी। शाम के समय फ्लाइट पकड़ना हो खास कर सात साढ़े सात वाली तो ये यक्ष प्रश्न हमेशा सताता है कि कार से जाएं या मेट्रो से। कई बार इतना ज्यादा ट्रैफिक हो जाता है कि दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। अभी तक शुक्र है कि फ्लाइट मिस नहीं हुई कभी। लेकिन एक बार मालविकाजी भी आ गयी एयरपोर्ट तक साथ। उनके दिल की धड़कनें तो इतनी बढ़ गयी कि बोली ” धौला कुआं पर उतरो और मेट्रो पकड़ो।”

इस बार ज्यादा रिस्क लेना उचित नहीं समझा और शिवाजी स्टेडियम पहुंचा और मेट्रो पकड़ ली। दिल्ली की मेट्रो सेवा बहुत अच्छी है और एयरपोर्ट मेट्रो के तो कहने ही क्या।
मेट्रो में बैठते ही हाल ही की ग्रीस यात्रा का किस्सा याद आ गया। एथेंस में मेट्रो का हमारा पहला (और आखिरी) सफर।

23 सितंबर की बात है , मैं और मालविका तथा प्रो भरत गुप्त जी और उनकी श्रीमती जी दिल्ली से ग्रीस के लिए रात 3 बजे रवाना हुए। हमारी पहली ग्रीस यात्रा थी लेकिन गुप्तजी कई बार वहाँ जा चुके थे। लगभग बारह घंटे के सफर के बाद जब हम एथेंस पहुंचे तो प्रो भरत गुप्त जी ने सलाह दी कि होटल तक टैक्सी बहुत महंगी पड़ेगी और हमें दो टैक्सी करनी पड़ेगी। मेट्रो से सफर करना ठीक होगा। वे अनुभवी थे और बात बचत की थी सो थकान को एक तरफ रख उनकी बात मान ली।
टिकट खरीदकर जब प्लेटफॉर्म पहुंचे तो समझ नहीं आ रहा था कौन सी मेट्रो पकड़नी है और किस तरफ जाने वाली पकड़नी है। उद्घोषणाएं और डिस्प्ले ग्रीक में थे। ग्रीस की आधी कमाई टूरिज्म से है फिर भी एयरपोर्ट मेट्रो जैसी जगह पर भी अंग्रेजी का प्रयोग न होना आश्चर्य का धक्का दे गया।
हम भारतीय पूछने में संकोच नही करते। करीब आठ दस लोगों से पूछा तब मालूम पड़ा कि सिंतगमा जाने वाली मेट्रो कब और कहाँ आएगी।

ट्रेन खाली थी और हम मय साजोसामान के उसमे समा गए। लगभग 45 मिनट की यात्रा के बाद सिंतगमा आने वाला था। वहाँ से मेट्रो बदल के अमोनिया जाना था। जैसे जैसे स्टेशन आते गए मेट्रो में भीड़ बढ़ती गयी। आश्चर्य था कि उस भीड़ में हमें लोग जिसमें पुरुष महिलाएं शामिल है भीख मांगते मिले। दिल्ली की मेट्रो में आपको ये नज़ारा देखने को नहीं मिलता।
“ग्रीस की आर्थिक हालात खराब है पिछले दस साल से। इसलिए ये नज़ारे अब आम है। आप मोबाइल , पर्स भी बचा कर रखिये। ” भरत जी ने सूचना दी।

हमारा सामान ज्यादा था और भीड़ भी बढ़ रही थी इसलिए सिंतगमा आने के काफी पहले ही हम खड़े हो गए। भीड़ का दबाव भी था। हमारे इर्द गिर्द कुछ लड़के ही थे। ज्यों ही स्टेशन आया ” हरी हरी , क्विक क्विक” का शोर हुआ। लेकिन दरवाजा पूरा खुला ही नहीं अटक गया। फिर शोर हुआ ” गो गो नेक्स्ट नेक्स्ट डोर” । हम हड़बड़ी में थे। तभी हमारे कम्पार्टमेंट का दरवाजा खुला और हम मय सामान के बाहर आ गए। “अपना पर्स मोबाइल देख लिया न ” भरत जी ने कहा और मेरा हाथ जेब पर गया। मेरा पर्स उसमें नहीं था। मालविका ने मेरा चेहरा देखा और तुरंत बोली ” गया। इनका पर्स गया। ” हम चारों अवाक थे।

तभी किसी ने मेरी पीठ पर हाथ रखा। मुड़ कर देखा तो काली टी शर्ट और जीन्स पहने एक हष्ट पुष्ट युवक था। उसने मुझे मेरा पर्स थमाया और दौड़कर मेट्रो में चढ़ गया। मैं उसे अवाक देखता रहा। बंद होते दरवाजे के बीच उसने अंगूठा अपने सीने से लगा कर अभिवादन किया और ट्रेन फर्राटे से निकल गयी। ये सब कुछ घटित हो गया कुल 20 सेकंड में यानि जितनी देर वहाँ मेट्रो का स्टॉप था उतनी देर में।

हमें उस पूरी घटना के धक्के से उबरने में कुछ समय लग गया। पर्स में पैसे तो थे ही, क्रेडिट और डेबिट कार्ड भी था। किसने निकाला होगा पर्स और कौन था वो जो मुझे मेरा पर्स दे गया। सवाल बहुत थे लेकिन उत्तर कोई नहीं। मन ही मन उस काले टी शर्ट वाले को धन्यवाद दिया। वो न होता तो न जाने कैसी होती हमारी ग्रीस यात्रा। उसके बाद जहां भी गए टैक्सी से , अपना बैग और पर्स सम्हालते हुए।

एथेंस की बड़ी से बड़ी दुकानों पर लगे ताले, सुनसान होते शॉपिंग काम्प्लेक्स , और सड़क पर राह चलते खाना और पैसे मांगने वाले लोग ग्रीस की खस्ता माली हालत का बखान खुद कर रहे थे। भारत की तुलना में ग्रीस की निर्भरता बहुत अधिक है टूरिज्म पर। फिर भी वहाँ गर ऐसे दृष्य देखने को मिलें तो मन होता है कहने को “इससे तो हम लाख गुना अच्छे”।


सच्चिदानंद जोशी। शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, साहित्य साधक। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की एक पीढ़ी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। इन दिनों इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स के मेंबर सेक्रेटरी के तौर पर सक्रिय।