अतिवादों के दौर में पत्रकारिता और गांधीवाद

अतिवादों के दौर में पत्रकारिता और गांधीवाद

मोनिका अग्रवाल

जब हम किसी से पूछे कि  वर्तमान में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का काल कैसा है ? शायद जो जवाब मिले वो ऐसा हो- पतनशील, विकासहीन, लक्ष्यविहीन, अराजकतापूर्ण तथा सामाजिक सरोकारों से विमुख आदि। पर हम क्यों भूल जाते हैं कि  जिस युग से हम तुलना कर रहे है वह युग आज की तुलना में अलग था।  यहीं से शुरू  होती है गलतियां। लोग बिना वजह बहस को आगे बढ़ाने लगते हैं, जो न तो किसी कसौटी पर खरी उतरती है और न ही कर्णप्रिय होती है। महात्मा गांधी का युग और आज के युग में अब कोई तुलना नहीं है। दोनों का अपना–अपना अलग महत्व है। वर्तमान समय में हमारा समाज अनेक दबावों को झेलता हुआ तेजी से बदल रहा है। जिसके कारण समाज में दिन प्रतिदिन अनेकों विसंगतियां एवं विडंबनाओं का जन्म होता जा  रहा है।

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आज जब पत्रकार गांधी जी पर चर्चा करते हैं तो उनकी तुलना अपने मोबाइल युग से करने लगते हैं। उन्हें उस युग के बदलाव और समस्याओं की बहुत जानकारी नहीं होती। वे अपने आईने से गांधी युग को देखते हैं। वर्तमान समय में साहित्यिक पत्रकारिता जिस प्रकार से व्यावसायिक होती चली जा रही है उसके पीछे खेल केवल मुनाफा कमाने का है। व्यावसायिक पत्रकारिता के मूल में फैशन, मनोरंजन, विज्ञापन तथा सनसनी मकसद है जिनकी माँग भी समाज में खूब है। वहीं साहित्यिक पत्रिकाओं को नई- नई असुविधाओं से जूझना पड़ रहा है।

गांधी जी खुद एक पत्रकार भी थे। वे हरिजन नामक अखबार निकला करते और उसमें समाज के पिछड़े वर्ग के अलावा राजनीतिक सन्देश भी देते। अब गांधी जी अपने युग में क्या करते उसकी तुलना आज से तो नहीं की जा सकती न। उनका मूल ध्येय था भारत को स्वतंत्र करना। आप इस बात को जान लीजिये कि गांधी का युग कितना खतरनाक था। जर्मनी में हिटलर था, इटली में मुसोलिनी और जापान में तेजो, जिन्होंने दुनिया जीतनी चाही। दुनिया ने 1914 से 1918 के बीच जो पहला विश्वयुद्ध देखा उस समय भी गांधी थे। यह लड़ाई बड़ी ही भयानक थी।  भारत के न जाने कितने सैनिक विदेश लड़ने अंग्रेजों की तरफ से गए और कभी लौट कर नहीं आये।1917 में रूस में क्रांति हो गयी और दुनिया साफ़ तौर पर –कम्युनिस्ट और कैप्टलिस्टके रूप में दो धड़ों में बदल गयी।

आज के पत्रकार आजाद भारत में जीते हैं, खुद की नौकरी करते हैं, खूब पैसे कमाते हैं, राजनीति भी करते हैं, फिर वह उस युग की कल्पना कैसे कर सकते हैं, जो मानव के लिए कठिनाइयों से भरा था। वर्तमान समय में पत्रकारों या साहित्यकारों का दायित्व-बोध प्राथमिक न रह कर द्वितीयक व तृतीयक बनता चला जा रहा है। जबकि यह होना चाहिए था कि इस पूंजीवादी, अराजकता के दौर में साहित्यकार और पत्रकार समाज के प्रति प्रतिबद्ध रहें और पत्रकारिता के मूल्यों व दायित्वों के प्रति ईमानदारी बरतें। ऐसा भी नहीं है कि सभी साहित्यकार और पत्रकार पूंजीवादी सभ्यता के इस खेल को नहीं समझ पा रहे हैं । कुछ कर्मशील लोग हैं जो इन समस्याओं पर गम्भीर होते हुए भी अपनी पीढ़ी को सचेत तथा भावी पीढ़ी के लिए स्वच्छ वातावरण का निर्माण करने की लगातार कोशिश जारी रखे हुए हैं।

हिटलर कहता था कि अंग्रेज गांधी को इतना महत्व क्यों देता है –सिर्फ एक ही गोली तो मारनी है। क्या अंग्रेज ऐसा कर सकते थे? उनकी ताकत तो थी, पर उनकी सभ्यता में ऐसा नही था। अंग्रेज हमेशा यह दिखाने की कोशिश करते कि शांति काल में उनका शासन बेहतर है। लेकिन जब कोई उनके खिलाफ उठ खड़ा होता, तो वह खुद के बनाये नियमों को ही तोड़ देते… यही साम्राज्यवाद था। आज का पत्रकार उन दृश्यों की कल्पना भी नहीं कर सकता कि हिटलर ने एक पूरे कौम –यहूदी को कैसे मारा. आज एक किसी खास जाति के लोग की मौत होती है तो पूरा मीडिया चिल्लाने लगता है, इसमें उनका राजनीतिक स्वार्थ है। जब हर चीज राजनीतिक आइने से देखी जाने लगे तब इंसान के सोचने की शक्ति ख़त्म हो जाती है. लोग राजनीति के गुलाम हो जाते हैं।

सारी परिस्थितियों को देखते एवं समझते हुए यह कहना उचित जान पड़ता है कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का जो समकाल है वह अभावग्रस्त तो है लेकिन इसके  साथ ही वह संघर्षशील भी है। यह कह देना कि वर्तमान समय में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पतनशील, विकासहीन, आभावग्रस्त (विचारों के स्तर पर), लक्ष्यच्युत, लक्ष्यविहीन है। यह दृष्टि केवल और केवल एकांगी है । हमें जरुरत है एक ऐसी दृष्टि की जो साहित्यिक पत्रकारिता के समकाल को सही सन्दर्भों में मूल्यांकित करे। किसी ने सच ही कहा है कि वही इतिहास की धारा में बचते हैं जिनके पैर झूठ के नहीं होते। भाव यह है कि समय की छलनी सबको छानकर रख देती है। मतलब साफ है कि समय ही सबका मूल्यांकन कर देता है। अगर हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के मूल में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का भाव, मानवीय सरोकारों का दायित्य बोध नहीं होता तो वर्तमान में इनका नामोनिशान नहीं बचाता। गाँधी की  नजर में पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रीयता और जनजागरण था।


मोनिका अग्रवाल। मुरादाबाद की निवासी। शब्दों से खेलना नहीं आता, पर सराहना ज़रूर आता है और ज़िन्दगी की छोटी छोटी चीज़ों में खुशियाँ तलाशती हैं। समाजशास्त्र  और कम्प्यूटर से स्नातक। अंकुर, हमारा पूर्वांचल,  लोक जंग, मैट्रो, कादम्बिनी  ,वेब पत्रिका “हस्ताक्षर”  ,हिमाचल से प्रकाशित गिरिराज ,और टाबर टोली में कविताएं और बाल कविताएं प्रकाशित।