परवाह नहीं, हम पंछी उन्मुक्त गगन के…

परवाह नहीं, हम पंछी उन्मुक्त गगन के…

सच्चिदानंद जोशी

फेसबुक, 30 जुलाई, 2017। पहली हवाई यात्रा, जी नही मैं अपनी पहली हवाई यात्रा की बात नहीं कर रहा हूँ। हालांकि उसका किस्सा भी मजेदार है, लेकिन वो फिर कभी। किस्सा आज सुबह का है जब मैं एक कार्यक्रम के सिलसिले में चेन्नई जाने के लिए निकला। पहली हवाई यात्रा के दो ऐसे प्रसंग सामने आए कि उन्हें आपसे साझा करने की इच्छा हो गयी।

पहला तो दिल्ली के T1 टर्मिनल का ही है। सिक्योरिटी से बाहर निकलते देखा कि गेरुआ पहने बुजुर्ग हैरान परेशान घूम रहे हैं। उनकी अवस्था ऐसी थी मानो भीड़ में गुम हुआ बच्चा हो। वो पूछताछ भी कर रहे थे लेकिन शायद उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पा रहा था। मैं उनके पास गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें मुम्बई जाना है और वो बोर्डिंग गेट ढूंढ रहे हैं। मैं उन्हें अपने साथ वहां ले गया, जहाँ से बोर्डिंग गेट के लिए सीढियां नीचे जाती हैं। वहाँ आकर वो बोले “यहाँ तो हम कई बार झांक गए लेकिन हवाई जहाज नही दिख तो लौट गए।” मैंने उन्हें समझाया कि हवाई जहाज यहां नहीं खड़ा होता, यहां से दूर खड़ा होता है।

अगली मुसीबत एस्केलेटर की थी। मैंने उनसे कहा सीढ़ियों से उतरते हैं तो वो जिद में बोले “नहीं जायेंगे तो इसी से। देखे ये हमें कब तक छकाती है।” अंततः मैंने उन्हें वो तरीका बताया जिससे एस्केलेटर पर चढ़ा जाता है और उनका हाथ पकड़ कर उन्हें एस्केलेटर पर चढ़ाया। तब वे बोले “क्या करें बेटा हम ठहरे नागा, हम तो कभी इस मायाजाल में आये नहीं। अब ट्रेन का टिकट नहीं मिला तो बच्चों ने हवाई टिकट कर दिया। लेकिन यहाँ तो कोई किसी की सुनता ही नहीं।” मैंने उन्हें बोर्डिंग गेट तक पहुँचाया और गो एयर के कर्मचारी से उनकी मुलाकात करवा दी। वो भला आदमी भी उन्हें अंग्रेजी में समझाने लगा तो मैंने कहा -भाई आपको हिंदी आती हो तो कृपया इन्हें हिंदी में समझा दें। वो बुजुर्ग आशीष देते हुए बोले “बेटा अंग्रेजी हमें आती नहीं और यहां सब अंग्रेजी में बता रहे थे सो हमें कुछ पल्ले नही पड़ रहा था।” अब क्या बताता उन्हें कि हवाई सेवा वाले हिंदी भी बोले तो वो अंग्रेजी ही लगती है। लेकिन मन में ये भी बात कौंध गयी कि जिसे अंग्रेजी न आती हो उसका “साइलेंट एयरपोर्ट” पर गुजरा कितना मुश्किल है।

मुझे इंडिगो से जाना था। मेरी सीट 3F थी। यहां सीट नंबर बताने का तात्पर्य ये कि आप समझ जाएं कि इस खिड़की वाली सीट के लिए 300 रुपये अतिरिक्त देने पड़ते हैं। लेकिन चूंकि टिकट आयोजकों ने भेजा था इसलिए अपन को इसकी परवाह नहीं थी। 3D और 3E पर एक तमिल पति पत्नी बैठे थे। उनकी वेश-भूषा से वे अत्यंत साधारण परिस्थिति के नज़र आ रहे थे। उनकी चर्या से लग रहा था कि ये उनकी पहली हवाई यात्रा है। अपनी सीट पर बैठने के बाद अहसास हुआ कि उनका एक आठ दस साल का बच्चा भी है जो दूसरी तरफ बैठा है। वो मेरी तरफ ऐसे देख रहा था मानो मैंने उसकी खिड़की वाली सीट छीन ली है।

थोड़ी देर तक तो मैं उस परिवार को देखता रहा फिर अचानक मन में आया और मैंने अपनी सीट उस बच्चे से बदल ली। उस समय उस बच्चे और उसकी मां की आँखों में आयी चमक देखने काबिल थी। फिर कुछ देर माँ और बेटा खिड़की के लिए झगड़ते रहे, अंततः पिता ने फैसला किया कि दोनों थोड़ी-थोड़ी देर बैठेंगे। जैसे ही हवाई जहाज रनवे पर दौड़ा उनके हाव-भाव देखने काबिल थे। वे अपनी पहली हवाई यात्रा का पूरा आनंद लेना चाह रहे थे और ले भी रहे थे। वो अपने आनंद का इज़हार ऊंचे स्वर में बात करके कर भी रहे थे। लेकिन अपने कानों में इयर फ़ोन लगा कर अपने अंदर उठ रहे शोर को दबाने की कोशिश करने वाले हमारे सभ्य समाज को उनका नैसर्गिक रूप से आनंद उठाना नागवार गुजर रहा था। अपनी अप्रसन्नता जितने तरीकों से जाहिर की जा सकती थी, वो की जा रही थी। लेकिन पूरी तरह पारदर्शी जीवन जीने वाले उस परिवार को शायद अप्रसन्नता के वो इशारे भी समझ नहीं आ रहे थे। वे अपने में तल्लीन थे, मस्त थे। इतना कि उन्होंने तीन सीट के बीच के आर्म रेस्ट को हटा कर बस की सीट बना दिया था और मां बेटे मज़े से उस ढाई घंटे की यात्रा में सो भी रहे थे। उन्हें आनंदित होते देखना और उन पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने वाले अन्य सहयात्रियों को देखना एक मजेदार अनुभव रहा। बहुत सारी बातों का हम भी आनंद उठाना चाहते हैं, लेकिन छद्म आवरण हमें ऐसा करने से रोक देते हैं। हमें दूसरे का जोर से हंसना बात करना अच्छा नही लगता लेकिन कान में ईयर फ़ोन लगा कर शोर सुनना पसंद है।

चेन्नई एयर पोर्ट पर उतरते हुए उस पूरे परिवार के चेहरे पर विजयी भाव था, और अपने इस अनुभव को अपने साथियों से बांटने का उतावलापन भी। ना जाने कितने दिनों तक वे अपने इस अनुभव की मीठी खुमारी में जीने वाले थे। और हम बाकी सब ये जताने की कोशिश में कि ये तो हमारी रोज-मर्रा की जिंदगी का हिस्सा है, अपनी राह पकड़ रहे थे।
इस बीच एक शरारती सवाल अपने आप से पूछने की इच्छा हुई कि अगर टिकट आयोजक ने न किया होता और 3F के लिए पैसे मैंने अपनी जेब से ही भरे होते तब भी क्या मैं उतनी ही उदारता से वो सीट उस बच्चे को दे पाता?


sachidanand-joshi-profileसच्चिदानंद जोशी। शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की एक पीढ़ी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। इन दिनों इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स के मेंबर सेक्रेटरी के तौर पर सक्रिय।