आर्थिक उदारीकरण और वैश्विक फलक पर आकार लेती  हिन्दी

आर्थिक उदारीकरण और वैश्विक फलक पर आकार लेती हिन्दी

ब्रह्मानंद ठाकुर

 हिन्दी आज दुनिया के विकसित देशों की जरूरत बन गई है। यह स्थिति अनायास नहीं बनी है। यह आर्थिक उदारीकरण का ही परिणाम है कि विश्व के बड़े देश अपने यहां हिन्दी के पठन – पाठन पर विशेष बल दे रहे हैंः आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत एक बडे बाजार के रूप में उभरा है। परिणाम स्वरूप ,  बहुराष्ट्रीय देशों  की कम्पनियों ने अपने – अपने देश की सरकारों पर यह दबाव डालना शुरू कर दिया है कि वहां हिन्दी का प्रचार – प्रसार तेजी से बढे ताकि  वे भारत समेत हिन्दी भाषी एशियाई देशों मे अपना कारोबार  वहां की भाषा में सरलता पूर्वक कर सकें।अमेरिका ,ब्रिटेन, जर्मनी,फ्रांस और चीन जैसे देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार को इसी नजरिए से देखने की जरूरत है। वेब विज्ञापन, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिंदी की मांग इन दिनों काफी तेजी से बढ़ी है विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैंकड़ों छोटे बड़े शिक्षा केंद्रों में स्नातकोत्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों में फिलहाल 3 दर्जन से अधिक पत्र-पत्रिकाए नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है। जिनमें न्यूजीलैंड से प्रकाशित भारत दर्शन,कनाडा से सरस्वती, संयुक्त अरब अमीरात से प्रकाशित अभिव्यक्ति और यू एस ए से प्रकाशित पत्रिका कर्मभूमि काफी लोकप्रिय है। फ्रांस के पेरिस शहर में सौरवेन यूनिवर्सिटी में हिंदी के 3 वर्ष के पाठ्यक्रम के अलावा पीएचडी के लिए शोध की भी व्यवस्था है।

       जापान के टोक्यो और ओसाका विश्वविद्यालयों में हिंदी का 6 वर्षीय कोर्स कराया जाता है। यहां के अन्य विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों में हिंदी वैकल्पिक विषय के रूप में द्वितीय एवं तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया  में हिंदी का 2 वर्षीय पाठ्यक्रम है । संयुक्त राज्य अमेरिका के 30 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। चीन के बीजिंग विश्वविद्यालय में हिंदी की पढ़ाई होती है। ब्रिटेन ने भी अपने यहां हिंदी शिक्षण पर विशेष जोर दिया है।

                 अन्य भाषाओं की अपेक्षा यदि देखा जाए तो हिंदी भाषा अपनी लिपि और उच्चारण के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है। इसमें एक अक्षर से एक ही ध्वनि निकलती है और एक बिंदु का भी अपना महत्व होता है दूसरी भाषाओं में यह बात नहीं पाई जाती है। आर्थिक उदारीकरण के बाद अब तक विश्व के देशों में जितने हिंदी सम्मेलन हुए हैं वे यह साबित करते हैं कि हिंदी आज विश्व के देशों की जरूरत बन चुकी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की प्रगति यदि इसी तरह होती रही तो निकट भविष्य में हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में एक आधिकारिक भाषा का स्थान निश्चित रूप से हासिल कर लेगी।