कोरोना संकट में साथी हाथ बढ़ाना…सवाल ज़िंदगी का है

कोरोना संकट में साथी हाथ बढ़ाना…सवाल ज़िंदगी का है

राणा यशवंत, मैनेजिंग एडिटर, इंडिया न्यूज़

राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार

आप जब कुछ करते हैं तो अपने स्वभाव,संस्कार और इंसानियत के नाते करते हैं। उसका कारण ढूंढेंगे तो मिलेगा भी नहीं। मैंने कोविड के इस भयावह समय में लोगों को अपनों को बचाने की खातिर लाचार देखा, बेबस देखा। इंसान जब मुसीबत में होता है, खासकर जब जान पर बन आती है- उसके या उसके अपनों की, तब वह उसी को याद करता है, जिसपर उसका सबसे ज्यादा भरोसा होता है। यह सिर्फ समझने वाली बात है। जिसपर गुजरी होगी, उसको समझने में देरी नहीं लगेगी।

मुझे भी किसी ने अपने भाई और किसी ने अपने पति की खातिर फोन किया। जान नहीं बचेगी यह लग गया था, लेकिन एक उम्मीद थी कि इस वक्त भी इलाज मिल जाए तो शायद जिंदगी बच जाए। ठीक ऐसे ही वक्त पर उन लोगों ने फोन किया, जिनको मैं अपना कहता हूं या वे कहते होंगे कि हां इस शहर में उनको मैं जानता हूं या जानती हूं। मैंने उन लोगों को इलाज मिले इसकी खातिर सिस्टम को झकझोरा। जीवन भर मैं लिहाजी रहा।अपने लिए कुछ कहने में हमेशा हिचक रही । लेकिन इन मामलों में मैंने अपनी पूरी ताकत लगाई और उसका फल ये रहा कि जिंदगियां बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा। मेरे एक सहयोगी पिछले तीन दिनों से कोरोना की चपेट में हैं। कल जब मैंने तबीयत जानने के लिए फोन किया तो सांस उखड़ रही थी। बोले सर, ब्रीदिंग प्रॉब्लम है। चेस्ट का सीटी स्कैन कराना बहुत जरुरी है, कहीं भी करवा दीजिए। मामला नोएडा का था इसलिए मैंने पंकज सिंह जो यहां के विधायक हैं, उनको कहा। फौरन जवाबी फोन आया- मेट्रो अस्पताल भेजिए, अभी करवा रहे है। सीटी स्कैन हो गया । आज रिपोर्ट आई, चेस्ट में थोड़ा इंफेक्शन है। उनकी पत्नी दवा लेने के लिए निकली, मगर एक दवा मिल नहीं रही थी। मेरे पास फोन आया। मैंने कहा तुम थोड़ा समय दो मैं खुद कुछ जगहों पर तफ्तीश करके बताता हूं । लेकिन फेविफ्लू 400 नहीं मिली। आखिरकार उन्ही लोगों ने यहां से 800 किमी दूर इस दवा का इंतजाम करवाया। कल 11 बजे वह दिल्ली के एक हिस्से तक पहुंचेगी । मैने कहा – कल बता देना कहाँ से उठाना है, किसी को भेजकर मंगवा लूंगा।

दोपहर में कानपुर के एक सज्जन ने ट्वीट के जरिए रिक्वेस्ट की – सर, एक बेड चाहिए ऑक्सीजन के साथ कानपुर में, पेशेंट का ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा है, अगर मदद मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी। साथ में फोन नंबर भी था। मेरे पापा को आज बुखार आ गया। मैं डर गया। तुरंत अपने मित्र और यशोदा अस्पताल के मालिक रजत अरोड़ा को बताया। उन्होंने फ़ौरन एक आदमी भेजा – एंटी जेन और आरटीपीसीआर टेस्ट, दोनों के लिए। एंटी जेन निगेटिव आया तो थोड़ी राहत मिली । अब आरटीपीसीआर रिपोर्ट का इंतजार है। पापा को मैने आइसोलेशन में डाल दिया है। उन्हीं के चलते आज ऑफिस नहीं गया। जब मैं उनके इलाज, टेस्ट और दवा में लगा था, उसी दौरान यह ट्वीट आया । मैने मेरे कानपुर के तेज तर्रार रिपोर्टर राहुल को मैसेज डाला।लिखा ये जरुरी केस है, करवा दो। राहुल ने करवा दिया। पता तब चला जब जिन्होंने गुजारिश की थी उन्होंने ही ट्वीट पर बहुत सारी दुआएं डालीं। एक फोन आया। लखनऊ में एक परिवार पॉजिटिव है। वह अब बाहर नहीं जा सकता और घऱ में खाने-पीने के सामान से लेकर दवा तक नहीं है। आसपास के लोगों को फोन कर रहे हैं, लेकिन वे मदद करने को तैयार नहीं है। उनका पता, नंबर सब मैसेज में आ गया। मैंने लखनऊ के लोगों और प्रशासन से निवेदन किया कि इस परिवार को सामान पहुंचाया जाए। कई लोगों ने मुझे दवाई भेजनेवाली दुकानों के नाम पता दिए, मैंने परिवार के साथ साझा किया। कुछ लोगों ने खाना सप्लाई करनेवालों के बारे में भी बताया। शाम तक जाकर उस परिवार की मश्किल हल हो गई। दिन में कई मैसेज आते रहे। किसी को प्लाज्मा की जरुरत तो किसी को दाखिले की। जितना बन पाया किया। कुछ हुआ कुछ नहीं। लेकिन जो नहीं हुआ वह कल भी नहीं होगा, ऐसा नहीं है।

शाम में मेरे एक छोटे भाई सरीखे सज्जन का फोन आया। उनके एक दोस्त मुरादनगर में रहते हैं। कोरोना पॉजिटिव हैं और उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिर रहा था। उनको तुरंत एडमिशन की जरुरत थी। आजकल अस्पतालों में किसी को भर्ती करवाना नाको चने चबाने जैसा हो गया है। मुझे उस वक्त एक ही नाम सूझा और मैंने फोन लगाकर कहा कि सर ये लाइफ का सवाल है, मैं आपके यहां भिजवा रहा हूं, प्जील एडमिशन दिलवा दीजिए। दूसरी तरफ थे देश के जाने माने कॉर्डियोलॉजिस्ट पद्म विभूषण डा. पुरुषोत्तम लाल। पुराना रिश्त है और मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसके कई कारण है। उन्होंने कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद कहा- कोई नहीं आप भेजो, मैं बोलता हूं। मरीज जब पहुंचा तो जो अस्पताल में थे उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। बोलो मामाल क्रिटिकल है। अभी आईसीयू है नहीं औऱ इनको आईसीयू में ले जाना पडेगा। मुझे मेरे उसी छोटे भाई जैसे सज्जन का फोन आया – भैया ये लोग तो एडमिट ही नहीं कर रहे। मैंने डा. लाल के असिस्टेंट जिनको डाक्टर साहब ने एडमिशन करवाने का काम दे रखा था, उनको फोन किया। मैंने कहा सुनो क्या मरीज अब ये ढूंढे कि किस अस्पताल में आईसीयू है? क्या तबतक ये बच पाएगा? आप एडमिट करो, ऑक्सीजन देना शुरु करो, दवाएं चलाओ – फिर आईसीयू देखेंगे। एडमिशन हो गया और रात 9 बजे फोन आया कि सुधार जारी है। मैंने तो अपने कुछ जाननेवालों या दोस्तों की खातिर लड़ना शुरु किया लेकिन पिछले चार-पांच दिनों में इतने लोगों ने अपनी परेशानियां बतानी शुरु कीं, इतने लोगों को सख्त जरुरत आन पड़ी कि लगा अगर ईश्वर ने आपको कुछ लोगों का भरोसा बनाया है तो उसको बचाने की खातिर यह करते रहना ही ठीक है।

आज जिस बात की तकलीफ है वो दो है। मेरे एक मित्र जो बिहार के पूर्णिया जिले के अच्छे खासे परिवार से आते हैं, उनके रिश्तेदार नोएडा के सेक्टर 29 के सरकारी अस्पताल में दाखिल है। उन्होंने फोन कर कहा कि उनसे बात ही नहीं हो पाती। कभी कभार जब अस्पताल के लोग परमिट करते हैं तभी बात होती है। कह रहे थे कि सुबह से किसी ने कोई दवा नहीं दी। मैं चलकर ही बाहर से अंदर आया और यह बताया भी कि मुझसे चला नहीं जा रहा है, सांस फूल रही है तो कर्मचारी ने कहा कोई बात नहीं आप चलिए हम ऑक्सीजन लगा देंगे। लेकिन वह दोबारा कभी आया ही नहीं। मेरे मित्र ने बताया कि वे बेहद डरे हुए हैं। कुछ भी करके उनकी दवाई शुरु करवा दीजिए। मैंने डीएम, कमिश्नर नोएडा को ट्वीट किया और पूरा हाल बताया। यह भी कहा कि मरीज की स्थिति क्या है, बताया जाए। लेकिन कोई जवाब नहीं आया।यह प्रशासन का अधिकार नहीं है, उसकी नाकामी है। सरकारें और सरकारी सेवा के लोग जनता का काम करने के लिए हैं और जनता के पैसे पर हैं। इसलिए वे नहीं करेंगे या नहीं बताएंगे, उनके पास यह अधिकार नहीं है।हम जब अपने अधिकार छोड़ते हैं तो सामने वाला उनपर अनाधिकृत तरीके से कब्जा कर लेता है। कल मैं उन मरीज के बारे में पता करुंगा।

दूसरी तकलीफ गुड़गांव के एक कोविड केस को लेकर रही। एक महिला जो मेरे पुराने मित्र की भानजी हैं उनके ससुर एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती है। सारा परिवार पाजिटिव है इसलिए बाहर कोई जा नहीं सकता। ससुर को छोड़कर बाकी सब घर में क्वरंटाइन हैं। अस्पताल वालों ने पहले आसीयू में डाला, फिर ठीक हो रहे हैं कहकर वार्ड ले आए। फिर रेमडेसिविर देने के नाम पर बहुत कुछ किया, फिर बताया कि फेफड़ों में 40 परसेंट इंफेक्शन है, फिर कहा कि अब 60 परसेंट है। परिवार बाहर नहीं निकल सकता औऱ वो इस बात को लेकर बेचैन है कि उसके बुजुर्ग के साथ ये क्या हो रहा है। एक बात जो कहनी जरुरी है- इस भयावह तबाही में कुछ लोग मोटी कमाई कर रहे है। उनको जान की नहीं पड़ी है बल्कि वे इस काम में लगे हैं कि कितना निचोड़ लें, किसको ऐंठ दें,अगर शरीर लाश भी बन जाए तो उसपर भी पैसा बनाते रहो। ऐसे लोगों के साथ जो भी साथ जो भी हो सकता है होना चाहिए बिना ये सोचे कि गलत हुआ कि सही। सही गलत तो इंसान की खातिर सोचते हैं, हैवानों के लिए थोड़े! समय बहुत खराब है। बहुत ख्याल रखें अपना और अपनों का भी। उसका फल ये रहा कि जिंदगियां बचीं। अगले दिन जब फोन आता है कि सर अब बच जाएंगे, ठीक हैं, शरीर के अंदर कुछ अच्छा सा पसरता हुआ लगता है। शायद वह आत्मा या रुह के उल्लसित होने से होता होगा। मेरे एक सहयोगी पिछले तीन दिनों से कोरोना की चपेट में हैं