चंपारण के 100 साल, आज तो कर लो गांधी को याद

चंपारण के 100 साल, आज तो कर लो गांधी को याद

ब्रह्मानंद ठाकुर

मौसम भी है और मौका भी।  इसमें जो चूक गया, वह पछताएगा। भले ही गांधी की हत्या किसी एक ने की थी लेकिन पिछले 70 सालों से उनके विचारों की हत्या अनवरत जारी है । गांधी तो अतीत बन गये,  गांधीवाद भी हाशिए पर चला गया। बच गया तो केवल गांधी का नाम और बची रह गयी उनकी ‘राम’ कहानी । इसी राम कहानी को सुना-सुना कर राजनीतिक दल अपनी-अपनी दुकान चलाते आ रहे हैं । इस देश में सब कुछ हो तो रहा है गांधी के नाम पर लेकिन गांधी के विचारों को कुचलकर । निर्विवाद है कि गांधी ने बिहार में चम्पारण की धरती से अंग्रेजों के खिलाफ जिस आन्दोलन की शुरुआत की थी उससे वे राष्ट्रीय फलक पर स्थापित हो गये। भारत के आजादी आंदोलन को एक दिशा मिली। सिविल नाफरमानी सत्याग्रह, अनशन, धरना उनका हथियार बना। इसी हथियार से अंग्रेज परास्त हुए। भारत को आजादी मिली। आजाद भारत के नव निर्माण का भी गांधी का यही रास्ता था। अंतिम जन का कल्याण।

क्या सचमुच हमारा देश आज गांधी के विचारों और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों और मान्यताओं के आधार पर आगे बढ़ रहा है ? क्या गांधी  का सत्याग्रह, सत्य और अहिसा आज प्रासंगिक रह गया है ? जिस अंतिम जन के कल्याण के लिए बापू अपने जीवन के आखिरी क्षण तक समर्पित रहे, कया आजाद भारत में उनका कल्याण हो पाया? जनता की बुनियादी समस्याओं के समाधान के लिए  गांधीवादी तरीके से चलाये जाने वाले आंदोलनों की धार कुंद क्यों बना दी गयी। अपने ही मुल्क में हम एक-दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो गये? आज ऐसे ही कुछ सवाल हमारे जेहन में कौंध रहे हैं। पिछले दिनों राजस्थान के नूह तहसीलमें पहलू खान की गो रक्षा के नाम पर निर्मम हत्या कर दी गई । उनकी गलती महज इतनी थी कि वह अपनी जीविकोपार्जन (डेयरी व्यवसाय )के लिए कहीं से 45 हजार में गाय खरीदकर घर ले जा रहा थे। जिसकी रसीद भी उनके पास थी ।

खैर बात गांधी की हो रही है तो ये जानना जरूरी है कि गाय को लेकर बापू की क्या आस्था थी । इसका जिक्र बापू ने 1909 में लिखी अपनी चर्चित पुस्तक ‘ हिन्द स्वराज्य’ में व्यक्त किया है। वे लिखते हैं “मैं खुद गाय को पूजता हूं यानि मान देता हूं। गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय  कई तरह से उपयोगी जानवर है। (गाय की उपयोगिता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए ) जैसे मैं गाय को पूजता हूं वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूं । जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू सभी उपयोगी हैं। तब क्या गाय बचाने के लिए मैं मनुष्य से लडूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा ? ऐसा करने से मैं मुसलमान और गाय दोनों का दुश्मन बनूंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करनेका एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाईयों के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं। अगर मुझे गाय पर दया आती हो तो मुझे अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं तो मानता हूं ।“(हिन्द स्वराज्य, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी पेज 52-53) 

फ़ाइल

15 अप्रैल1917 को जब गांधीजी चम्पारण आये तो अनेक साथियों के साथ गांव-गांव घूकमकर वहां के हालात देखे थे।  फिर वे इस निश्चय पर पहुंचे कि चम्पारण में सच्चा काम करना हो तो गांव में शिक्षा का प्रवेश होना चाहिए। तब वहां गांधीजी ने देखा कि लोगों का ज्ञान दयनीय था । बच्चे मारे मारे फिर रहे थे। मां-बाप उनसे दो-तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे पूरा दिन नील की खेती में मजदूरी कराते थे। (इन पंक्तियों को लिखते हुए आज भी गांव-शहर की चाय दुकानों, होटलों, ढावों मे बर्तन माजते बच्चे और गांव के सरेह में बकरी चराते बच्चे की तस्वीर जीवंत हो जाती है) बापू आगे लिखते हैं कि बच्चे की मजदूरी दो-तीन पैसे, महिलाओं की मजदूरी 6 पैसे थी। चार आने की मजदूरी पाने वाला मजदूर अपने को बड़ा ही भाग्यशाली समझता था। ऐसी थी  तब चम्पारण की दीन दशा । पहली बार बापू ने अपने साथियों से विचार विमर्श कर 6 गांवों में बच्चों के लिए पाठशालाएं खोलने का निर्णय लिया । शर्त थी कि उस गांव के मुखिया  मकान और शिक्षक के भोजन का खर्च उठाएंगे। लोग अनाज देने के लिए तैयार हो गये। अब सवाल शिक्षक का था ।बिहार में तब बिना वेतन अथवा कम वेतन पर शिक्षक का मिलना मुश्किल था। बापू चाहते थे कि शिक्षक नैतिक रूप से सबल और चरित्रवान हों ताकि बच्चों पर उनका सकारात्मक प्रभाव पड़े।  उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवकों की मांग की। फिर गंगाधरराव देशपाण्डे ने बाबासाहब सोमण और पुंडलीट को भेजा। बम्बई से अवंतिकाबाई गोखले आयीं। दक्षिण से आनन्दबाई आयी। बापू ने खुद अपने बेटे देवदास गांधी को बुला लिया। फिर छोटेलाल और सुरेन्द्र नाथ जी आए ।चम्पारण में बुनियादी शिक्षा की नींव पड़ी। इतना ही नहीं बापू ने अपनी पत्नी कस्तुरबा गांधी को भी बुला लिया। महादेव देसाई की पत्नी दुर्गा बहिन, नरहरि पारिख की पत्नी मणिबहिन भी आयीं। शिक्षा का अभियान परवान चढ़ने लगा। अनेक कठिनाईयां भी आयीं लेकिन यह अभियान बापू के नेतृत्व और चम्पारण की जनता के सहयोग से आगे बढ़ता रहा। बाद में पूरे बिहार में 391 बुनियादी विद्यालय खोले गये। तब इसका उद्देश्य ऐसी शिक्षा से था जो बेरोजगारी दूर कर सके और मानवीय गुणों का विकास करे। कृषि, कताई, बुनाई, हस्त शिल्प, उद्योग विकास गृहविज्ञान आदि इसके पाठ्यक्रम में शामिल थे।ऐसे विद्यालयों में धर्म की शिक्षा पूरी तर प्रतिबंधित थी। प्रत्येक बुनियादी विद्यालय के पास कृषि योग्य पर्याप्त जमीन  थी । यह उस समय दान में मिली थी ।

मेरे गांव में भी बुनियादी विद्यालय की स्थापना हुई थी। मुजफ्फरपुर जिले के सभी 16 प्रखंडों मे कुल 29 बुनियादी विद्यालय स्थापित किए गये थे। इनमें केवल बंदरा प्रखंड में 5 बुनियादी विद्यालय स्थापित हुए। मैंने भी 7वीं कक्षा तक की शिक्षा अपने गांव के बेसिक स्कूल से प्राप्त की है। पढाई के साथ-साथ कताई-बुनाई, कृषि से जुड़ी शिक्षा दी जाती थी । उस वक्त हेडमास्टर समेत सभी शिक्षक स्कूल में ही रहते थे। खाना भी खुद बनाते थे। सादा जीवन, उच्च विचार उनके जीवन का आदर्श था।वे एक तरह से गाधी को जी रहे थे। चरित्र और भेष-भूषा में भी गांधी उनके आदर्श हुआ करते थे, लेकिन आज शिक्षा की क्या हालत है। अगर मैं केवल मुजफ्फरपुर जिले की बात करूं तो यहां 75 प्रतिशत बुनियादी विद्यालय कई बरस से बिना हेडमास्टर के चल रहे हैं। यह है बापू के शिक्षा की तस्वीर और हम मना रहे हैं चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष।

बिहार में 2011 से बालिका शिक्षा के लिए 244 कस्तुरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय संचालित हैं। एक आवासीय बालिका विद्यालय में 100 छात्राओं को दाखिला मिलता है । दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक परिवार की वैसी लड़कियां जो गरीबी के कारण पढ़ने में असमर्थ हैं उन्हें मुफ्त भोजन, नाश्ता, कपड़ा और पाठ्य सामग्री उपलब्ध करा कराई जाती है । आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि इसमें दयाभाव, जीवमात्र के प्रति प्रेम और आत्मबल को गांधीमनुष्य के सभी गुणों से ऊपर मानते रहे। उनका मानना था कि “अगर दुनिया की कहानी लड़ाई से शुरू हुई होती,  तो आज एक भी आदमी जिंदा नहीं रहता। जो प्रजा लड़ाई (भोग) की शिकार हो जाती है उसकी ऐसी ही दुर्दशा हुई है। आस्ट्रेलिया के गोरों ने उनमें से शायद ही किसी को जीने दिया है। जिनकी जड़ ही खत्म हो गयी, वे लोग सत्याग्रही नहीं थे। जो लोग जिंदा रहेंगे वे देखेंगे कि आस्ट्रेलिया के गोरे लोगों के भी हाल होंगे ।’ जो तलवार चलाते हैं उनकी मौत तलवार से होती है ‘। हमारे यहां भी ऐसी कहावत है कि तैराट की मौत पानी में ।दुनिया में इतने लोग आज भी जिन्दा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियारबल पर नहीं, सत्य, दया और आत्मबल पर है “-(हिन्द स्वराज्य )

आज हम देख रहे हैं कि गांधी के देश से दया, प्रेम, सत्य और अहिंसा का भाव किस भांति विलुप्त होता जा रहा है । उसकी जगह साम्प्रदायिक कट्टरता, आपसी वैमनस्य, दूसरे के विचारों और आस्था के प्रति असहिष्णुता आम बात हो गई है । गांधी के उपरोक्त विचारों को दफन किया जा रहा है । गांधी तो प्रकृति के साथ तालमेल बनाते हुए, उसको बिना नुकसान पहुंचाए जीवन जीने के पक्षधर थे और आज धनकुबेर बनने की चाहत में प्राकृतिक संसाधनो का बेदर्दी के साथ अविवेक पूर्ण दोहन से एक नया संकट  पैदा किया जा रहा है । शिक्षा के प्रति गांधी जी का एक अलग नजरिया था। वे तालीम को सिर्फ अक्षर ज्ञान तक ही सीमित रखने के पक्ष में नहीं थे। वे तो नयी पीढ़ी को ऐसी शिक्षा देना चाहते थे जो उसे नैतिक और चारित्रिक रूप से मजबूत बना सके । अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध डट कर खड़े होने की हिम्मत पैदा कर सके। एक ऐसी शिक्षा जिससें मनुष्य की इन्द्रियां उसके वश में रहें। वैसी शिक्षा जो मनुष्य मनुष्य में विभेद पैदा करने वाली हो, एक-दूसरे का दुश्मन बनाता हो, जीवन की समस्याओं को समझंने का दृष्टिकोण पैदा न कर सके उन्हें स्वीकार्य नहीं थी । तो आज गांधी के तमाम मूल्यों मान्यताओं को दफ्न कर गांधी के नाम की माला जपने का जो निहितार्थ है, युवा पीढ़ी के लिए इसे समझना भी जरूरी है।


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।