कहीं दर्जनों फ्लाईओवर, कहीं एक अदद पुल की जंग

कहीं दर्जनों फ्लाईओवर, कहीं एक अदद पुल की जंग

⁠⁠⁠पुष्यमित्र

फरकिया के ढेंगराहा पुल की लड़ाई अभी शुरू हुई है। हो सकता है इन्हें जल्द सफलता मिल जाये, हो सकता है बरसों लग जाये और क्रमवार तरीके से इन्हें इसी तरह आंदोलन करना पड़े। इन्हें इसके लिये तैयार भी रहना चाहिये। क्योंकि सच्चाई यही है कि कोसी वालों को पुल के लिये दशकों लड़ना पड़ता है, तब जाकर सरकार पसीजती है।

तसवीर विजय घाट पुल की।

ऐसी ही एक कथा है, नवगछिया के विजय घाट पुल की। वहां जो आज पुल बना है वह 40 साल लंबे आंदोलन के बाद बना है। एक संन्यासी ने इस पुल के लिये 1976 से ही आंदोलन चला रखा था। 2002 में लालूजी ने पीपा पुल बनवाने की घोषणा की, मगर वह पीपा पुल कभी नहीं बना। 2007-8 में नीतीश जी ने पुल की मांग स्वीकार की। 2010 में काम शुरू हुआ और 2016 के आखिर में पुल बन कर तैयार हुआ। अब सोचिये उस एक पुल के लिये वहां के लोगों को कितना संघर्ष करना पड़ा। संन्यासी ने तो अपना पूरा जीवन ही होम कर दिया।

ऐसी ही एक कहानी सहरसा शहर के बीचो बीच बनने वाले रेलवे ओवरब्रिज की है। इसकी मांग भी दशकों पुरानी है। 1996 में तो सरकार ने इसकी मांग मान कर ओवरब्रिज का शिलान्यास भी करवा दिया। उसके बाद से इसका अगले 20 सालों में तीन बार शिलान्यास हो चुका है। मगर निर्माण अब तक शुरू नहीं हुआ। इस बार वहां के सांसद पप्पू यादव ने घोषणा की है कि अगर यह ओवरब्रिज नहीं बना तो वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे। इस बीच क्षेत्र की जनता जाम की समस्या को झेलने के लिये विवश है।

सहरसा खगड़िया के बीच ध्वस्त पुल के बगल में बना नाविकों का पुल।

ये गिनी-चुनी कहानियां नहीं हैं। 1934 के भूकम्प में कोसी और मिथिला का सड़क संपर्क टूटा, तो वह लगभग 80 साल बाद बहाल हुआ। मुंगेर में गंगा पर पुल बनवाने के लिये वहां के सांसद को कई दशक तक संघर्ष करना पड़ा। 2008 की बाढ़ में सहरसा-पूर्णिया का रेल संपर्क जो टूटा, वह पिछले साल बहाल हुआ। सहरसा और खगड़िया के बीच एक पुल कई सालों से टूटा पड़ा है। वहां नाविकों ने नावों को बांध कर एक वैकल्पिक पुल बना दिया है। बनमनखी और पूर्णिया के बीच का कुशहा पुल 2008 से ध्वस्त है।

इस इलाके के प्रति सरकारों की उपेक्षा हैरतअंगेज है। शहरों में बेवजह सैकड़ों फ्लाई ओवर खड़ी कर देने वाली सरकारें ग्रामीण क्षेत्रों की जेनुइन मांगों के प्रति जिस तरह की असंवेदनशीलता दिखाती है वह समझ से परे है। मगर यही सच है। ऐसे में मुमकिन है कि बाबूलाल शौर्य और उनके साथियों को लंबा संघर्ष भी करना पड़े। मगर उन्हें इसके लिये तैयार रहना चाहिये।

PUSHYA PROFILE-1


पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।