अपने गुरु से नाता जोड़, कहां गए मेरे गुरु हमको छोड़

अपने गुरु से नाता जोड़, कहां गए मेरे गुरु हमको छोड़

पशुपति शर्मा
बंसी दा ने अपने गुरु नेमिचंद्र जैन की स्मृति में एक नाटक का ताना-बाना बुना- ‘साक्षात्कार अधूरा है’। नाटक का मंचन रंग-विदूषक ने किया। निर्देशन फरीद भाई ने किया। दादा ने स्क्रिप्ट और रिसर्च की जिम्मेदारी मुझे सौंपी और इस पूरी प्रक्रिया में अपने रंगमंचीय संसार में ‘बड़ी एंट्री’ दे दी। दादा कहा करते थे, प्रस्तुति तो सब देखते हैं… रचना प्रक्रिया पर कम ही बात होती है। बंसी दा के आदेश पर ही ‘साक्षात्कार अधूरा है’ की रचना प्रक्रिया पर कुछ लिखा था। दादा की ‘स्मृतियों के उत्सव’ में ये आलेख आपसे फिर साझा कर रहा हूं।

बात बंसी दा की-4, सच! साक्षात्कार अधूरा रह गया मेरे गुरुदेव

मोबाइल की घंटी बजी… और पत्रकार साहब, क्या हो रहा है इन दिनों? बात जनवरी 2019 की है। ये वो वक्त होता है जब दिल्ली और एनसीआर का इलाका भयंकर ठंड की चपेट में रहता है। लेकिन जो आवाज़ थी, उसकी गर्मजोशी इस ठंड को बेअसर करने के लिए काफी थी। ये आवाज़ रंगकर्म में मेरे गुरु बंसी कौल की थी। बंसी कौल यानी दादा। बातचीत करने का उनका अंदाज ही कुछ ऐसा है कि आप हमेशा बैकफुट पर आ जाते हैं। अगली लाइन- “तो बड़े पत्रकार साहब, कभी मिलने का वक़्त निकालिए कुछ काम है।”

दादा का कहा, मेरे लिए एक आदेश की तरह रहा है। नया संस्थान, नए बॉस और चुनौतियां नई-नई। ऐसे में मुलाक़ात का वक्त निकालने की उधेड़-बुन में हफ़्ते, दो हफ़्ते और गुजर गए। फरवरी 2019 में फिर दादा का कॉल-” तो आज रात, आ जाओ ऑफिस से सीधे घर। मैं कल कहीं बाहर जा रहा हूं दो-तीन हफ्तों के लिए।” मैं पहुंचा रात करीब 11.30 बजे। दादा और एनएसडी के एक छात्र, दोनों मेरे लिए इंतज़ार कर रहे थे। हमने साथ खाना खाया और फिर दादा ने दे दिया एक टास्क।

दादा ने नेमिचंद्र जैन पर एक नाटक लिखने की जिम्मेदारी सौंप दी। उनकी कविताओं की पुस्तक- ‘अचानक हम फिर’ मुझे दी और कहा- मैं चाहता हूं कि आप नाटक लिखो, जिसमें नेमिचंद्र जैन के कवि-मन की तड़प बनी रहे। इसके साथ ही उनके जेहन में जो आरंभिक संकल्पना थी, उसे मुझे ब्रीफ कर दिया। मैं असमंजस में था कि दादा जो भरोसा जता रहे हैं, मैं उसे कैसे पूरा कर पाऊंगा। ना कहने की न तो गुंजाइश थी और न ही ख्वाहिश। बस दुविधा थी तो इतनी कि उनके जेहन में जो खाका चल रहा है, वो शब्दों में कैसे कागज पर साकार हो।

मैंने ‘अचानक हम फिर’ की कविताएं पढ़नी शुरू की। नेमिचंद्र जैन को समझने के लिए उन पर लिखी किताबें जमा कीं। नटरंग प्रतिष्ठान गया। वहां रश्मिजी से बातचीत की। उन्होंने कहा कि ‘मेरे साक्षात्कार’ पुस्तक के दो साक्षात्कार ( कृष्ण बलदेव वैद और प्रतिभा अग्रवाल) जरूर पढ़ो। घर, ऑफिस की भाग-दौड़ के बीच कविताओं को पढ़ कर मैंने कुछ कविताएं चुनीं और एक स्क्रिप्ट बुननी शुरू की। इसी दौरान, वैशाली से घर शिफ्ट करने का प्लान भी बनने लगा। मैंने लक्ष्य रखा कि स्क्रिप्ट का पहला ड्राफ्ट शिफ्टिंग से पहले ही तैयार कर लेना है।

यही वो दौर था, जब आम चुनावों की वजह से दफ्तर में भी काम के घंटे बढ़ गए थे और दूसरी तरफ हमेशा डर ये कि दादा का फोन आ जाएगा तो क्या जवाब दूंगा? अप्रैल 2019 के आख़िरी हफ्ते में दादा से नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के बेसमेंट में एक और मुलाकात। कविताओं को मुख्य मानकर, गिने -चुने संवादों के साथ मैंने एक स्क्रिप्ट तैयार की, मोहन को साथ लिया और पहुंचे दादा से मिलने। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि पहली प्रतिक्रिया क्या रहने वाली है?

दादा को स्क्रिप्ट थमाई। उन्होंने बड़ी तेजी से पन्ने दर पन्ने निगाह डालनी शुरू की। खटाखट पन्ने पलटते गए। 10-12 पेज के बाद ही दादा रुक गए। “अरे ये तो कविताओं की प्रस्तुति बनती जा रही है। ये तो हम कर ही लेंगे, इसमें ड्रामा क्रिएट करो। कुछ घटनाएं जोड़ो। एक शिक्षक के तौर पर उनके बारे में दूसरे लोगों की राय शामिल करो। कुछ इंटरव्यू करो। हो सकेगा तो हम वीडियो कंटेंट के तौर पर उसे इस्तेमाल करेंगे।” एक पुराने कुक की तरह उन्होंने हांडी से चावल के कुछ दानों से अंदाजा लगा लिया कि अभी तो ये ‘कच्ची’ स्क्रिप्ट है।

मैं और मोहन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से लौटते वक्त, बात करते रहे। अब आगे क्या करें? इसके साथ ही मई के पहले हफ्ते में घर वैशाली से ग्रेटर नोएडा वेस्ट शिफ्ट किया। दो हफ्ते नए घर को जमने-जमाने में लगे। इस बीच दादा से एक-दो बार फोन पर बातचीत हुई। मैंने खुद को सहेजा। कीर्ति जैन और अशोक वाजपेयी जी से वक्त लेकर बातचीत की। दोनों ही मुलाकातों में मोहन जोशी मेरे साथ रहा। वो लगातार मुझे भरोसा देता रहा- भइया, आप लिखिए, अच्छी बनेगी स्क्रिप्ट।

उधर, दादा ने मन ही मन मानो लोकसभा इलेक्शन तक मुझे छूट दे दी थी। इलेक्शन समाप्त होते ही ‘फरमान, अब तो आकर मिलो-मुझे भोपाल स्क्रिप्ट भेजनी है और काम शुरू करवाना है।’ जून के पहले हफ्ते में मैंने 4 दृश्य रि-राइट कर दादा को मेल पर भेजे। दादा ने देखा और कहा- “इसमें जो कविताएं इस्तेमाल की है, उनके ईस्वी सन और पेज नंबर भी दर्ज करो, और भेजो। मैं तब तक कविताएं याद करने एक्टर्स को भेज देता हूं।” 8 जून तक मैंने नाटक का दूसरा ड्राफ्ट पूरी तरह तैयार कर लिया। पहले ड्राफ्ट से दूसरे ड्राफ्ट के बीच काफी कुछ बदल चुका था। कई कविताएं अब इस ड्राफ्ट में जगह नहीं हासिल कर पाईं थीं।

दादा ने बताया कि रीडिंग शुरू हो चुकी है। अब फरीद भाई और हर्ष से भी संपर्क में रहो। दादा से स्क्रिप्ट को लेकर एक और मुलाकात अब जरूरी हो गई थी। मोहन के साथ 10 जून 2019 को मैं फिर द्वारका पहुंचा। दादा ने अशोक वाजपेयी वाले इंटरव्यू का थोड़ा सा हिस्सा सुना। स्क्रिप्ट के अलग-अलग हिस्सों पर बात-चीत हुई। उन्होंने कहा- ” अभी तो तुम जो भी चीजें जोड़ सकते हो जोड़ो, खुद प्री-एडिट करना बंद करो। ” मैंने उन्हें बताया कि फरीद भाई भी चाह रहे हैं कि कुछ सीन और बिल्ड-अप किए जाएं।

नाटक लिखने के दौरान कई वीकली ऑफ स्क्रिप्ट के नाम रहे। कहीं आना-जाना न हो सका। यही वजह रही कि एक मुलाकात में तो मैं पत्नी सर्बानी, बेटी रिद्धिमा और बेटे अनमोल के साथ ही दादा के पास पहुंच गया। दादा-दीदी के स्नेह ने हमें आत्म-विभोर कर दिया। बड़े प्यार से खाना बनाया था दीदी ने। वो भी इतना सारा कि रंग-विदूषक की पूरी मंडली जमा हो जाए, तो भी खत्म न हो। जुमा-जुमा 5 लोग और खाना दीदी ने बना लिया 20 लोगों का। कश्मीरी मसालों के साथ कश्मीर का जायका भर नहीं था उस खाने में, बहुत सारा प्यार भी मिला था।

दादा ने फरीद भाई को रिहर्सल की जिम्मेदारी सौंप दी। वो अलग-अलग सीन ब्लॉक कर रहे थे। इस दौरान उन्हें जो कमियां दिखीं, उन्होंने मुझसे शेयर कीं। इधर दादा की ब्रीफिंग भी लगातार फोन पर मिल रही थी। नाटक धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा। इस बीच स्क्रिप्ट का तीसरा ड्राफ्ट भी तैयार हो गया। दादा के कहे मुताबिक सूत्रधारों के संवाद बढ़ गए और मंच पर कई-कई नेमिजी अवतरित हो गए।

अज्ञेय ने नेमिचंद्र जैन को लिखी चिट्ठी में बयां किया है-‘सेंटिमेंटल होने से मत डरिए। बीसवीं सदी का एक रोग है सेंटिमेंट से डर।’ इस संदर्भ को हमने नाटक में इस्तेमाल किया है और अब जब मैं इस नाटक की रचना-प्रक्रिया पर बात कर रहा हूं तो यही डर सता रहा है कि कहीं भावुकता में एक संतुलन तो नहीं खो रहा। बहरहाल, बताता चलूं कि नटरंग के नेमिचंद्र जैन केंद्रित विशेषांक (74-76) ने मुझे नेमिजी की शख्सियत के अलग-अलग पहलुओं को समझने के सूत्र दिए। नेमिजी और मित्रों के बीच पत्राचार, डायरी के पन्नों से, अधूरे आत्म वृतांत और तमाम करीबियों के आलेख। कुछ खुद पढ़े और कुछ बंसी दा के निर्देश के मुताबिक खंगाले।

इस बीच फरीद भाई ने जब पूरे दृश्य ब्लॉक कर लिए तो बंसी दा का संदेश आया कि अब एक बार भोपाल जाकर देखो कि नाटक ने क्या शक्ल ली है। दादा का मोबाइल पर आदेश-” आपने नाटक लिखा है, आपको देखना चाहिए कि वो कैसा बन रहा है। जाओ देखकर आओ, फिर बात करेंगे। ” दादा की माताजी की तबीयत खराब होने की वजह से वो खुद भोपाल जाकर ठहरने की हालत में नहीं थे। आदेश था तो मैंने भी भोपाल का प्लान बना लिया।

यूं तो भोपाल में कई मित्र हैं, लेकिन मैंने सोचा कि इस बार ज्यादा से ज्यादा वक्त रंग-विदूषक के साथ ही दूं। फरीद भाई को फोन किया। सुबह सवेरे ट्रेन पहुंचने से पहले फरीद भाई स्टेशन पर हाजिर थे। उनके साथ घर गया। भाभी ने बेहद आत्मीय माहौल में चाय-ब्रेड खिलाई। फिर पराठे, पुलाव, बैंगनी और मेरी मनपसंद पीली दाल। बातचीत के दौरान बिटिया रानी का भी जिक्र आया। फरीद भाई और भाभी दोनों ही रिदा-रिदा का जिक्र करते हुए काफी प्रफुल्लित हो रहे थे। इसी बातचीत में पता चला कि रिदा दादा की लाडली है और रंग-विदूषक की ‘खबरी’। जो बात फरीद भाई दादा से छिपा जाते, उसकी भी पोल खोल देती है रिदा रानी।

21 जुलाई 2019 को दोपहर 3 बजे से रात 8.30 बजे तक नाटक की रिहर्सल चली। करीब दो दशक बाद मैं फिर से रंग-विदूषक की रिहर्सल में शरीक था। हर्ष, अमित जैसे कुछ पुराने चेहरे तो संजयजी और नीतिजी जैसे नए चेहरे। और इनके अलावा युवा रंगकर्मियों का पूरा समूह- बेहद उत्साहित। रिहर्सल देख कर लगा कि शुरुआती दृश्यों में जो टेम्पो बन रहा है, वो आखिरी दो दृश्यों में कहीं अटक रहा है। रिहर्सल में मेरे साथ दस्तक के पुराने साथी और पत्रकार सचिन श्रीवास्तव और पुष्पेंद्र रावत भी मौजूद थे। सचिन ने एक सवाल उठाया कि ‘कहीं अज्ञेय को हम विलेन की तरह तो पेश नहीं कर रहे।’ उसकी ये टिप्पणी बाद में कुछ सुधारों की वजह बनी और नेमिजी-अज्ञेयजी के रिश्तों को बयान करते वक्त मैंने सतर्कता बरती।दो रिहर्सल के बीच चाय की चुस्कियों के साथ हमने कुछ संवादों को रेखांकित किया। ये संवाद बेवजह के विवाद का सबब बन सकते थे। व्यवस्था पर तंज, नेमिजी की निजी जिंदगी की कुछ शिकायतें और जिंदगी में आए तल्खी भरे मोड़, उनको बयां भी करना था और किसी अन्य शख्सियत की निजता की हदें भी नहीं लांघनी थीं। लगातार ये कोशिश रही कि बतौर निर्देशक फरीद भाई की संकल्पना में मेरी एंट्री सीमित ही रहे। कुछ संवादों और दृश्यों पर हमने अंतिम फ़ैसला बंसी दा के लिए ही छोड़ दिया।

रिहर्सल खत्म हुई तो थोड़ा वक्त भोपाल के लिए बचा था। बंसी दा के साथ कवि और नाटककार राजेश जोशी का लंबा नाता रहा है। नेमिचंद्र जैन पर नाटक की शुरुआत से ही वो बराबर जिक्र करते रहे कि राजेश जोशीजी से भी बात कर लूं। मौका था तो फरीद भाई ने भी राजेश जोशी जी को फोन मिलाया और वक्त ले लिया। राजेशजी ने नेमिचंद्र जैन से जुड़ी कुछ यादें शेयर कीं। उन्होंने बताया कि कैसे एक नाट्य लेखन कार्यशाला के दौरान नेमिचंद्र जैन ने उनके लिए एक सख्त स्टैंड ले लिया था। कैसे भोपाल में एक कवि गोष्ठी के दौरान नेमिचंद्र जैन ने अध्यक्षता करते हुए बेवजह की टिप्पणी करने से एक वरिष्ठ कवि को रोक दिया था। इसके साथ ही उन्होंने सेंट्रल ट्रूप, रेखा जैन से जुड़े कुछ अन्य आत्मीय किस्से भी साझा किए।

23 जुलाई 2019 को ग्रेटर नोएडा में बंसी दा के भाई साहब के घर दादा से एक और मुलाकात। कमरे में बिस्तर पर लेटी माताजी और बाहर सोफे पर बैठे बेचैन दादा। माताजी के बारे में पूछा तो कहा- “जाओ देख लो, मैं तो इस हालत में उनके पास जाने की हिम्मत नहीं करता।” बातचीत के दौरान एहसास हुआ कि दादा दिल्ली में बैठे-बैठे ही मानो ‘संजय’ की तरह एलबीटी में चल रही रोजाना की रिहर्सल भी देख रहे हों। नाटक क्या शक्ल ले रहा है, इसका अंदाजा भी उनको बखूबी था। नाटक के इस आखिरी दौर में कुछ नए एक्टर्स शामिल हो रहे थे। अमित रिछारिया लंबी बीमारी के बाद ग्रुप में लौटे थे। दादा ने कुछ और सुधार के निर्देश दिए। सूत्रधारों और नेमिजी के संवाद जोड़ने को कहा। कोरस की भूमिका सीमित करने की जरूरत बताई। मंच पर चल रही गतिविधियों से ज्यादा जोर कथन पर देने को कहा। कुछ सोलोलॉकी का खाका भी बताया।

नाटक के संगीत की तैयारी भी साथ-साथ चल रही थी। इसी मुलाकात में अंजना दीदी ने कुछ कविताओं के लयबद्ध किए जाने की सूचना भी दी। माताजी की तबीयत थोड़ी स्थिर हुई तो अंजना दीदी दो-तीन दिनों के लिए भोपाल गईं। संगीत के जुड़ते ही नाटक में नई जान आ गई। अतुकांत और मुश्किल कविताओं को अंजना दीदी ने न केवल गेय बनाया बल्कि दर्शकों के जेहन में कौंधने वाला प्रभाव भी पैदा कर दिया। जब गीत रिकॉर्ड होकर आए तो दीदी की खुशी मेरे मोबाइल फोन में भी झनझना रही थी। वो भी दादा की तारीफ़ वाले लफ़्ज़ों को सुन कर चहक उठीं थीं- “अरे खुलकर बोलो न दादा ने क्या कहा?” मेरा जवाब- ” कुछ नहीं दीदी- दादा ने कहा कि कुछ गीत अच्छे बन गए हैं, सुन लो। “

इस बीच नटरंग प्रतिष्ठान की ओर से नाटक के नाम को लेकर फोन आया। दादा को मैंने एक दो नाम सुझाए- ‘अधूरा साक्षात्कार’ उसमें से एक था। दादा ने इसे बदल कर ‘साक्षात्कार अधूरा है’ कर दिया। रश्मिजी और कीर्तिजी ये मान रहीं थीं कि नाटक का निर्देशन बंसी दा ही कर रहे हैं। दादा ने दो टूक मना कर दिया- “भोपाल में नाटक फरीद बज़मी तैयार कर रहे हैं तो उन्हीं का नाम जाना चाहिए।” इस पूरे प्रकरण में संस्था के बाकी साथियों को उनका श्रेय देने की उनकी दिली ख्वाहिश थी। काफी मान-मनौव्वल के बाद उन्होंने ‘मार्गदर्शक’ के तौर पर अपना नाम देने पर सहमति जताई। जबकि सच तो ये है कि अगर ‘पथ-निर्माण और पथ-दर्शन’ टाइप कोई चलन रंगकर्म में होता तो ये ‘उपमा’ इस संदर्भ में दादा के लिए सटीक होती। इस पूरे नाटक में वो ‘मार्गदर्शक’ भर नहीं थे, वो हमारे लिए ‘रचनात्मक मार्ग’ का निर्माण कर रहे थे और फिर पूछ रहे थे कि कैसी बनी है सड़क और सफ़र में कैसा आनंद आ रहा है?

प्रस्तुति की तारीख नजदीक आई तो दादा ने भोपाल का कार्यक्रम बना लिया। तारीख ठीक से याद नहीं, 7 या 8 अगस्त 2019 को दादा भोपाल पहुंचे। इससे पहले मैं तमाम करेक्शन के साथ नाटक का चौथा ड्राफ्ट फरीद भाई को भेज चुका था। पहली रिहर्सल के बाद ही दादा का संदेश आया कि ‘चिट्ठी-पत्री’ वाला सीन जम नहीं रहा। इसे ‘चिट्ठियों के भावनात्मक इतिहास’ की तरह बुनो। एक लंबी सोलोलॉकी लिखो। उन्होंने जो सूत्र वाक्य दिए, इस पर जो सोलोलॉकी लिखी गई, उसे दर्शकों ने सराहा। इन दो-तीन दिनों में दादा और फरीद भाई में नाटक के तमाम पक्षों पर चर्चा हुई। सेट, संगीत, ब्लॉकिंग आदि-आदि। चूंकि मैं वहां मौजूद नहीं था, इसका बखान कर पाना भी मुमकिन नहीं। हां, इतना तय है कि इस दौरान तमाम कांट-छांट के बाद नाटक का वह ‘पांचवां ड्राफ्ट’ तैयार हो चुका था, जिसको मांजा जाना था। अब गेंद रंग-विदूषकों के एक्टर्स के पाले में जा चुकी थी।

नाटक में एक संवाद है कि “आखिरी वक्त में ऐसा लगता है मानो सब कुछ जल्दी-जल्दी समेटना चाहिए”। कुछ इसी भाव के साथ मैं भी रचना प्रक्रिया की आखिरी किस्त में कुछ सूचनाएं साझा करता चलूं। नाट्य-आलेख के लिए संदर्भ सामग्री रेखा जैन की पुस्तक ‘यादघर’, ज्योतिष जोशी की पुस्तक ‘नेमिचंद्र जैन’, मुद्राराक्षस की पुस्तक ‘नेमिचंद्र जैन’, महेश आनंद की पुस्तक ‘रेखा जैन’ से ली गई। इसके अलावा नेमिचंद्र जैन की पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कार’, नटरंग के विशेषांक, नटरंग प्रतिष्ठान की शोध सामग्री और अप्रकाशित इंटरव्यू से भी संदर्भ जोड़े गए। किशन कालजयी की फिल्म ने भी एक समझ बनाई। आदरणीय कीर्ति जैन, रश्मि जैन, अशोक वाजपेयी, और राजेश जोशी से बातचीत का जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं।

17 अगस्त को दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ‘अभिमंच सभागार’ में मंचन के साथ ही नाटक की रचना प्रक्रिया का पहला पड़ाव आ गया। इस दौरान हॉल में मौजूद दर्शकों के हाथ में एक ब्रोशर भी था। कुछ ने पढ़ा, कुछ ने समेट कर रख दिया। इसमें ही वो तमाम नाम दर्ज होते हैं, जो प्रस्तुति को साकार करते हैं। बताता चलूं मंच पर थे-अम्बर गुप्ता, अमित रिछारिया, अपू्र्व मिश्रा, अतुल द्विवेदी. आयुषी पटेल, हर्ष पटेल, कीर्ति सिन्हा, नीति श्रीवास्तव, नितिन पांडेय, संजय श्रीवास्तव, संकित सेजवार, शशि रंजन, उपेंद्र मोहंता, वाणी श्रीवास्तव, वारुणी शर्मा और विमलेश पटेल। संगीत निर्देशन और मुख्य गायन अंजना पुरी का। पार्श्व संगीत संयोजन एवं संचालन की जिम्मेदारी आदर्श शर्मा ने निभाई। कुछ कविताओं का पाठ किया- उदय शहाणे और आलोक चटर्जी ने। प्रकाश और मंच परिकल्पना अशोक सागर भगत की, मंच निर्माण वेद पाहुजा का। रंग-विदूषक में सालों से प्रस्तुति व्यवस्थापक के तौर पर जो नाम जुड़ा रहा है, वो नारायण शर्मा यहां भी मौजूद थे।

दोस्तो, कोई भी ‘साक्षात्कार’ पूरा कहां हो पाता है, अधूरा ही रह जाता है। ‘साक्षात्कार अधूरा है’ की निर्माण प्रक्रिया पर ये बातचीत भी कई मायनों में ‘अधूरी’ ही है। जो कुछ कह पाया हूं, उससे बहुत-बहुत ज्यादा ‘अनकहा’ रह गया है। और ये भी कि रचना प्रक्रिया का ये सच तो बस मेरी नज़र से देखा गया हिस्सा भर है। इस सृजन यात्रा में शामिल तमाम साथियों का अपना-अपना सच है, जो वो खुद ही साझा कर सकते हैं। क्योंकि देखने वाले की नज़र से शख्सियत ही नहीं बदलती, ‘रचना संसार’ भी बदल जाता है।

और आखिर में अपने गुरु (बंसी कौल) को नमन, जिन्होंने गुरु परंपरा से नाता जोड़ दिया। गुरु-शिष्य की आत्मीयता से सराबोर कर दिया। गुरु-शिष्य के बीच बहती अनवरत धारा का हिस्सा बना दिया।

पशुपति शर्मा