ग्वालियर के ‘गुंडे’ ने किसी रंगकर्मी से बदसलूकी नहीं की

ग्वालियर के ‘गुंडे’ ने किसी रंगकर्मी से बदसलूकी नहीं की

अनिल तिवारी

करीब 1962 के दौरान पिता जी का तबादला ग्वालियर हो गया और मेरा दाखिला उस समय के सर्वश्रेष्ठ स्कूल जो बिरलाजी द्वारा संचालित था और बिरला नगर में ही स्थापित था, में हो गया। दाखिला मिड सेसन हुआ था इसलिये तमाम सिफारिशों के बाद ही सम्भव हो सका था। उसकी भी एक लम्बी कहानी है पर यहाँ उसका वर्णन शायद उचित नहीं होगा। तो इस स्कूल का नाम है -जे सी मिल्स हायर सेकेन्डरी स्कूल। यह अभी भी ग्वालियर में स्थित है, पर अब यह अपनी पुरानी प्रतिष्ठा पूरी तरह से खो चुका है। बिरलाजी के सारे उद्योग अब यहां बन्द हो चुके हैं।

मेरी जिन्दगी का टर्निंग पाइन्ट इसी स्कूल से प्रारम्भ होता है। स्कूल का वातावरण अन्दर बहुत ही सख्त था पर स्कूल के बाहर निकलते ही यानी स्कूल कैम्पस के बाहर मील एरिया यानि पूरा इंडस्ट्री एरिया था। यहीं बिरलाजी के कपडों की फैक्टरी -जे सी मिल्स, ग्वालियर रेयन, आयरन फैक्टरी सिमको और स्टील फाउन्डरी थी जो अब बन्द हो चुकी है। कहने का मतलब कि यहां पाँच लाख से ऊपर मजदूर काम करते थे। और इन मजदूरों के बच्चे भी इसी स्कूल में पढते थे। स्कूल का एडमिनिस्ट्रेशन बहुत कड़ा था, पर स्कूल कैम्पस के बाहर गुण्डागर्दी अपने चरम पर थी। मेरी उम्र उस समय लगभग 9 या 10 साल की रही होगी। मुझे स्कूल से अधिक, बाहर का वातावरण अच्छा लगता था। जहाँ दादागीरी का साम्राज्य था, और मैं उसी ओर आकर्षित होने लगा।

मेरे रंग अनुभव के 50 बर्ष – तीन और चार

फिर यही सिलसिला परवान चढता गया। मैं जब सड़क से गुजरता था तो मेरी चाह रहती थी कि सभी मुझे सलाम करें।जो नहीं करता था उसे रोक कर चाँटा मार देना मेरी फितरत हो गई थी। अपनी उम्र से दोगुनी और चौगुनी उम्र तक के आदमी मेरे दोस्त हुआ करते थे। एक एरिया में मेरा आतंक हुआ करता था। यहाँ तक कि स्कूल और फिर कॉलेज के टीचर भी मुझसे डरा करते थे। कॉलेज में आकर इसका दायरा पूरे ग्वालियर तक छा गया था। झगड़ों का सिलसिला रोज का ही हो गया था। उस समय दादागीरी एरिया के हिसाब से हुआ करती थी और हर एरिया का एक दादा हुआ करता था।और लड़ाई भी एरिया वाइज ही हुआ करती थी। हॉकी, चैन, चाकू, नैग्लेस्टर इत्यादी का प्रयोग झगड़ों में हुआ करता था।पर किस्सा पुलिस तक जाये इससे पहले ही अमूमन कम्प्रोमाईज हो जाया करता था।

लड़ाई का मुख्य उद्देश्य वर्चस्व को कायम करना ही था, फिर कारण कुछ भी हो सकता था। कम्प्रोमाईज के बाद दोस्ती भी गजब की होती थी। बस दूसरे पक्ष का झुकना इसके लिये आवश्यक था। लड़ाई उस समय लड़कियों को लेकर अधिकतर होती थी। हमारे एरिया के हम संरक्षक हैं और हमारे एरिये की लड़की को दूसरे एरिये का कोई लड़का छेड़ न सके। प्यार न करे। जैसे ही खबर मिलती बस सभी इकट्ठा होकर चल देते दूसरे एरिये पर चढाई करने। कारण और भी होते थे पर अधिकतर फसाद लड़कियों के कारण ही होते थे। लड़की और उसके घरवालों को पता भी नहीं चलता था और प्यार करने वाले का खून खच्चर हो चुका होता था।

हमारे कई टैम्पो और मेटाडोर हुआ करतीं थीं, जो एक आवाज पर आ जातीं। फिर सब सवार होते और 20-20किलो मीटर तक मार कर के आते थे। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक मैं कॉलेज में पढता रहा। पर एक विशेष बात यह रही कि इस सब के होते हुये भी मैंने कभी भी शराब, सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाया जब कि ज्यादातर साथी इस सब के आदी थे। बिना पिये झगड़ा करने जाते ही नहीं थे।

मेरे नाटकों में अभिनय का कार्य मेरी 15 बरस की उम्र से ही प्रारम्भ हो गया था पर झगड़ों और दादागीरी का सिलसिला भी बराबर चल रहा था। इससे थियेटर में भी तगड़ी धाक थी और थियेटर में भी डर का माहौल रहता था। पर मैंने थियेटर के किसी भी आर्टिस्ट से कभी भी अभद्रता का व्यवहार नहीं किया। मैं बाहर कुछ और था और थियेटर में कुछ और। इसी बीच मैं श्री बंसी कौल, भानु भारती, श्री बी एम शाह, श्री प्रभात दा, श्री अलख नन्दन और बाबा कारन्त के सम्पर्क में भी आया। यही वो समय था जब दिल्ली का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय धीरे-धीरे मेरा घर-आंगन होता जा रहा था।


अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।