‘टी पार्टी’ से बन ही गये हम नचकैया

‘टी पार्टी’ से बन ही गये हम नचकैया

अनिल तिवारी

1968 में जब मेरी उम्र मात्र 15 वर्ष की थी तब तक मैं स्कूल के शिक्षकों के लिये सर दर्द का सबब बन चुका था। उस समय हमारे क्लास टीचर हुआ करते थे श्री के सी वर्मा जी, जो उस समय की प्रख्यात नाट्य संस्था कला मंदिर ग्वालियर के महा सचिव भी थे। रंगकर्म की दुनिया में उनकी पहचान थी। कला मंदिर, उस समय भारत की गिनी-चुनी नाट्य संस्थाओं में से एक थी। आज के पुराने रंगकर्मी इस नाम से भली-भांति परचित होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।

मेरे रंग अनुभव के 50 वर्ष –7

तो जब सभी शिक्षक मुझ से परेशान हो गये तो श्री के सी वर्मा जी ने सोचा कि क्यों न वो मुझे रंगकर्म की ओर मोड़ें? हो सकता है, इससे मेरे अन्दर बदलाव आये? इसी धारणा पर अडिग रह कर उन्होंने मुझे रंगकर्म से जोड़ने के अपने प्रयास तेज कर दिये। तभी उन्हें पता चला कि मेरे दो अभिन्न मित्र हैं जो रंगकर्मी भी हैं । मैं उनका कहा टाल नहीं सकता, और यह दोनों श्री के सी वर्मा जी के शिष्य भी थे। इनके नाम थे, अश्वनी शर्मा और आनन्द बिरमानी।

अश्वनी शर्मा की ही बेटी है प्रख्यात फिल्म गाइका सुश्री ममता शर्मा। जिसका गाना मशहूर है- ‘मेरे फोटो को सीने से यार चिपका ले सैंया फेबीकोल से’। तो मेरे कारण ही श्री के सी वर्मा जी ने एक नाटक की रिहर्सल शुरु की जिसका नाम था ‘टी पार्टी’। यह नाटक श्री वर्मा जी द्वारा ही लिखा गया था। और इसमें अभिनय करने के लिये अश्वनी शर्मा और आनन्द विरमानी को मेरे पास भेजा गया। दोनों मेरे पास आये तब मै शर्मा रेस्टोरेन्ट में अपने ग्रुप के साथ बैठा हुआ था। इन दोनों के आग्रह का हम सभी ने बहुत उपहास उड़ाया और बार-बार यही कहा कि ‘हमें नचकैया बनना पड़ेगा हाहाहा।

और भी तरह-तरह के अपशब्द बोले और उन्हें वहां से भगा दिया। पर वो दोनों नहीं माने और बराबर कई दिनों तक मुझसे आग्रह करते रहे। इसमें उन्होंने ‘साम- दाम, दण्ड-भेद’ सभी का सहारा लिया। पर मैं टस से मस नहीं हुआ। फिर भी जब वो नहीं माने तो मैं एक दिन रिहर्सल देखने के लिये तैयार हो गया। फिर वादे के अनुसार हमारा पूरा ग्रुप रिहर्सल देखने जाने लगा। करीब 15 दिनों के पश्चात एक दिन ऐसा आया जब नाटक का एक कलाकार रिहर्सल पर नहीं आया, जो नौकर का करेक्टर कर रहा था। तो श्री वर्मा जी ने इस की प्रॉक्सी करने के लिये मुझसे आग्रह किया। बाद में बहुत सालों बाद मुझे मालूम पड़ा कि उस करेक्टर का न आना एक सोची-समझी साजिश थी।

काफी नानुकर के बाद मैं प्रॉक्सी के लिये आखिरकार तैयार हो ही गया। मेरे अभिनय की सभी ने बढ़ा-चढ़ा कर तारीफों के पुल बांधे और मैं फूल कर कुप्पा होता चला गया। जब कि मेरे सभी साथी इसे षडयंत्र करार दे दे कर मुझे समझाते रहे पर तारीफ किसे बुरी लगती है? नाटक में छोटा सा करेक्टर था पर उसे ऐसा गाया गया जैसे मैं ही नाटक का हीरो हूँ और पूरे नाटक का भार मेरे ही कंधो पर हो।

खैर नाटक का शो हुआ। तारीफों के पुल बांधे गये। आखिर तक सभी को यह डर सताता रहा कि कहीं ऐसा न हो कि मैं अंतिम समय में धोखा दे जाऊं, इसलिये एक सब्सटिट्यूट भी तैयार किया गया था जिसका मुझे पता नहीं था। मतलब मुझ से छिपा कर उसे तैयार किया जा रहा था। इस राज का भी मुझे क ई सालों बाद पता चला। तो इस प्रकार ‘टी पार्टी’ के जरिए मेरा नाटकों में प्रवेश हो ही गया। 


अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।


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