18 साल की उम्र में ‘बजाया राजा का बाजा’

18 साल की उम्र में ‘बजाया राजा का बाजा’

अनिल तिवारी

वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल तिवारी की ये सीरीज फेसबुक पर आ  रही है और उसे देर-सवेर हम भी बदलाव पर साझा कर रहे हैं। वो इस सीरीज में 50 से ज्यादा कड़ियां लिख चुके हैं और हम 15-16 की गिनती गिन रहे हैं। हालांकि इस कड़ी में अनिल तिवारी जी का पूरा सहयोग और सहमति बदलाव के साथ है। उन्हें इस लेटलतीफी को लेकर कोई शिकायत भी नहीं है। एपीसोड 15 के बाद उन्हें थोड़ी खीझ हो रही थी। कई मित्रों के कमेन्ट्स उन्होंने डिलिट किए और दो मित्रों को ब्लैक लिस्ट भी किया। उनके मुताबिक पोस्ट सत्यता पर आधारित है, इसलिये सभी घटनाओं का सही-सही जिक्र करना पड़ता है। यह प्रभाव अच्छा या बुरा दोनों हो सकता है और इसकी प्रतिक्रिया भी। बहरहाल उन्होंने इसके आगे बात रखी और हमने भी इस कड़ी को जारी रखा। 

मैं फिर से आप सभी को बीआईसी की ओर ले कर चलता हूँ। यहाँ मैंने लगभग दस वर्षों तक लगातार रंगकर्म किया। कहें जब तक बीआईसी में नाटकों का मंचन होता रहा मैं बीआईसी से जुड़ा रहा पर 1978 से मिल में स्ट्राइक और धरने-प्रदर्शनों का जोर कुछ ज्यादा ही बढ गया। इसके कारण मैनेजमेन्ट का ध्यान सांस्कृतिक गतिविधियों और स्पोर्ट्स से हट कर आन्दोलनों से निपटने की ओर अधिक लगने लगा। और ठीक भी था जब मिल ही बन्द हो जायेगी तो काहे के खेल और काहे के नाटक।

मेरे रंग अनुभव के 50 वर्ष –16

मिल अधिकतर इन्डियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक)  की गाइडेन्स के अनुसार ही चलती थी, जिसका मुख्य कारण श्री सुमेर सिंह जी थे जो इंटक के प्रेसीडेन्ट थे। साथ ही बिड़ला ग्रुप के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री सरदार सिंह जी चौरडिया के अभिन्न मित्र भी थे। और यह मित्रता मिल शुरू होने के समय से ही थी जब सरदार सिंह जी मिल निर्माण में लगे गधे गिना करते थे जिन पर मिट्टी और बजरी लद कर आया करती थी और सुमेर सिंह जी मिल में सामान्य कर्मचारी हुआ करते थे। धीरे-धीरे मिल में काम बढने लगा और सुमेर सिह जी मजदूर नेता हो गये। सरदार सिंह जी मैनेजमेन्ट प्रमुख हो गये पर यह मित्रता कम होने के बजाये बढती ही गई। कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों धड़ों (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्स वादी कम्युनिस्ट पार्टी) को जहाँ यह दोस्ती खटकती थी वहीं यह दोनों धडे़ मिल की राजनीति में इंटक के वर्चस्व को स्वीकार करने के लिये तैयार भी नहीं थे। इसलिये आन्दोलनों का दौर दिन पर दिन बढता ही जा रहा था।

इस सबसे बीआईसी की गतिविधियाँ बराबर प्रभावित होती चली जा रहीं थीं और 1978 के बाद यह गतिविधियाँ लगभग समाप्त सी ही हो गई थी। बस 1978 के बाद यदि थोड़ी बहुत एक्टिव रह गया था तो बिड़ला ग्रुप की महिलाओं का संगठन। इसमें ग्रुप के अधिकारियों की पत्नियाँ अधिक थीं। वैसे मैं इन महिला ग्रुप के साथ भी एक्टिव था और महिला संगठन के साथ भरथरी, हरदौल, सीता स्वंयम्बर, कृष्ण रास इत्यादी नाटकों का निर्देशन किया। 1968 से जहाँ मैंने अभिनय में कदम रखा था वहीं 1971 से निर्देशन का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया था। उस समय मेरी उम्र मात्र 18वर्ष थी।

18 साल की उम्र में मैंने अपने निर्देशन में पहला नाटक किया- राजा का बाजा बजा। यह नाटक हमने स्टेज पर भी मंचित किया और नुक्कड़ों पर भी इसके कई प्रदर्शन किये। जहाँ मैं बीआईसी में अभिनय कर रहा था, वहीं स्कूलों और कॉलेजों में अधिकतर नुक्कड़ नाटकों का निर्देशन भी कर रहा था। विभिन्न प्रदर्शनों में बराबर भाग भी ले रहा था।

इस बीच दादागीरी भी अपनी चरम सीमा पर थी। नुक्कड़ नाटकों में कई बार झगड़े की नौबत भी आ जाया करती थी।और कभी मारपीट भी हो जाती थी। वो समय ही कुछ ऐसा था कि बिना झगड़े के काम ही नहीं चलता था। जो चाहे वो उलझने को तैयार रहता था। और यह किस्से नुक्कड़ नाटकों के समय तो अधिक ही हुआ करते थे। जहाँ चैन, हॉकी और चाकू तक चल जाया करते थे। नुक्कड़ नाटक उस समय एक आन्दोलन था। इसको दबाने का दूसरी ओर से भरसक प्रयास किया जाता था।

कॉलेजों और स्कूलों में बराबर नाटक कराते रहने के कारण मेरा नाटकों के लिए अच्छा ग्रुप बन कर तैयार हो गया था, जिसमें सदस्यों की संख्या 80 के पार थी। और ग्रुप के सभी सदस्य एक से बढ कर एक धाकड़ थे मतलब हर तरह के कार्य में निपुण थे। आप खुद समझ गये होंगे निपुण का क्या अर्थ है? यह सिलसिला सालों चलता रहा।


अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।


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