6 दिसंबर का वो दिन, जब भीड़ ने छीना कैमरा

6 दिसंबर का वो दिन, जब भीड़ ने छीना कैमरा

एसके यादव

6 दिसंबर 1992, आजाद हिंदुस्तान का एक  दिन, जिसने ना सिर्फ देश के धर्मनिरपेक्ष भावना को बिगाड़ा बल्कि मुल्क को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर सारी मर्यादाओं का तार-तार कर दिया गया। ना संविधान की परवाह की गई और ना ही समाज की। अयोध्या में लाखों की उन्मादी भीड़ जमा हुई और उसने देखते ही देखते राम की नगरी में बाबरी ढांचे को धराशायी कर दिया। इस घटना को 25 साल गुजर गए। यानी एक पीढ़ी बीत गई। दिसंबर 1992 में जो बच्चे थे वो आज युवा हो चुके हैं। लेकिन आज भी तमाम ऐसे लोग हैं, जो उस दिन की घटना से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। लेकिन जो पत्रकार उस दिन पूरे मामले को कवर करने गए थे, उसे याद कर सिहर उठते हैं। बतौर फोटो जर्नलिस्ट एसएके यादव की जुबानी जानिए 6 दिसंबर की कहानी।

6 दिसंबर 1992 का दिन मुझे कभी नहीं भूल पाएगा । इस घटना को बीते पच्चीस साल हो गए लेकिन अभी जिस वक्त मैं इन पंक्तियो को लिख रहा हूँ मेरी सांसे बहुत तेजी से चल रही है,दिल बेतरतीबी से धड़क रहा है,ठीक वैसे ही हालात हैं जैसे उस दिन थी।

उस दिन गुलाबी ठंड के बीच सुबह करीब पांच बजे मैं फैजाबाद से अयोध्या पहुंचा। लाखों की भीड़ देख मैं सोच में पड़ गया कि आखिर यहां क्या होने वाला है? लिहाजा, मैंने अपनी बाइक विवादित ढांचे के पीछे विहिप के शिविर में खड़ी कर दी और गलियों के रास्ते सरयू नदी की तरफ जा रही लाखों की उन्मादी भीड़ के बीच फोटो खींचते हुए घाट तक गया। भीड़ एक हाथ में लोटे में सरयू का जल और दूसरे में रेत लेकर ढांचे की तरफ बढ़ने को आमादा थी। आपको बताते चलें कि तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर इसी ‘सांकेतिक’ कारसेवा की मंजूरी पहले ही ले रखी थी। लिहाजा मेरे जैसे देश-दुनिया के सैकड़ों पत्रकार इस कारसेवा को कवर करने अयोध्या पहुंच गए थे। किसी को हिंसा या तोड़फोड़ का कोई अंदेशा भी नहीं था। हालांकि उन्मादी कारसेवकों की जयश्रीराम की कानफाड़ू गूंज और बेकाबू बॉडी लैंग्वेज किसी अनहोनी की तरफ साफ इशारा कर रही थी ।

मेरी जैकेट की एक तरफ भीतरी पॉकेट में से फ़िल्म रोल (उस वक्त कैमरे में फिल्म यूज होती थी) एक के बाद एक निकल कर एक्सपोज़ होने के बाद दूसरी तरफ की जेब में चली जाती। इस ऐतिहासिक कवरेज के लिए भारी भीड़ को देखते हए कैमरा बैग साथ नहीं ले जाना था। मेरे तीनों कैमरे गले मे लटक रहे थे, एक में शार्ट ज़ूम, दूसरे में 70-210 और तीसरे में colour फ़िल्म लोड थी। भीड़ को चीरते हुए तेजी से निकलने का कुम्भ का अनुभव काम आ रहा था। करीब 5 घंटे तक मैं भीड़ के बीच इसी तरह चलता रहा। सुबह के दस बजे चुके थे, घाट से मुख्य जमावड़ा ठीक विवादित ढांचे की भीतरी बैरिकेटिंग के सामने लगना शुरू हो गया।

सुबह के 11 बजे तक सरयू से लौटी लाखों कारसेवकों की भीड़ विवादित ढांचे के बाहर लगभग एक किलोमीटर के दायरे में इकट्ठा हो गई। पूर्व निर्धारित समूहों में कारसेवकों को राज्यवार क्रम से अधिग्रहीत स्थल की बाहरी बैरिकेटिंग (जो की लोहे के मोटे पाइप से दस फुट ऊंची बनाई गई थी) के बाहर रोक कर रखा गया था। पूरा क्षेत्र पुलिस और PAC फोर्स की मौजूदगी से छावनी में तब्दील था। दो साल पहले 1990 में UP की जो पुलिस अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलाने से भी नहीं चूकी थी आज एकदम हाथ बांधे भीड़ का तमाशा देख रही थी। पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार 12 बजकर 10 मिनट पर सांकेतिक कारसेवा शुरू होनी थी। जिसमें लोगों को अधिग्रहीत स्थल की बाहरी बैरिकेटिंग से एक छोटे रास्ते से भीतर आकर यज्ञ स्थल पर जल और रेत डाल कर मंदिर निर्माण की सांकेतिक शुरुआत करके पीछे दूसरे रास्ते से बाहर जाना था। दक्षिण भारत के राज्यों की टोली को सबसे आगे थी।

इस बीच विश्व हिन्दू परिषद, बजरंगदल, बीजेपी समेत तमाम संगठनों के शीर्ष नेता यज्ञ स्थल पर आने लगे। आडवाणी, जोशी, उमाभारती और अशोक सिंघल को विवादित ढांचे के ठीक सामने यज्ञ स्थल पर देखते ही भीड़ आपा खोने लगी । नारों की गूंज आसमान छूने लगी और नारों में बाबरी ढांचा तोड़ने औऱ मंदिर निर्माण तुरंत शुरू करने की आवाज़ जोर पकड़ने लगी। टीवी चैनल्स के कैमरों और फोटो पत्रकारों में इन नेताओं को ढांचे के बैकग्राउंड में फ़ोटो और बाईट लेने की होड़ सी मच गई। बीबीसी के मार्क टली सहित देश दुनिया के दिग्गज पत्रकारों के साथ कंधे से कंधा रगड़ते काम करने की जो अनुभूति उस दिन हुई, वो अमिट छाप छोड़ गई। मीडिया के दिग्गजों के बीच खुद को पाकर मैं गौरवान्वित हो रहा था, तभी वो हुआ जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी।

सुबह के करीब साढ़े 11 बजे विवादित ढांचे से करीब चार सौ मीटर दूर रामकथा कुंज नाम के बड़े और खुली छत वाले भवन के छत पर सप्ताह भर से चल रहा कंट्रोल रूम और केंद्रीय प्रसारण केंद्र एक भव्य और विशाल हिंदूवादी ऐतिहासिक सभा मंच में तब्दील हो चुका था। आडवाणी, जोशी, उमा, अशोक सिंघल, आचार्य धर्मेंद्र, महंत अवैद्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा सहित सभी फायरब्रांड नेता माइक से कारसेवकों को नियंत्रित और संबोधित कर रहे थे। यज्ञ स्थल से मैं भी सभा मंच की ओर संभवतः उस दिन की अंतिम महत्वपूर्ण तस्वीर बनाने तेजी से भागा। भीड़ को पार पाना मुश्किल था लेकिन पौने बारह तक गजब की फुर्ती के साथ मैं भी सभा मंच के नीचे सीढ़ियों तक पहुंच गया। तभी अचानक मेरी नज़र रामकथा कुंज कंट्रोल रूम के भूतल के कमरों से जुड़ी कारसेवकों की कतार औऱ उसमें हलचल की तरफ पड़ी। मेरे सामने आज की सबसे एक्सक्लूसिव तस्वीर थी। करीब दो ढाई सौ कारसेवक इन कमरों से बड़े बड़े हथौड़े, सड़क खोदने वाला औजार बेलचा, रस्से आदि निकालकर विवादित ढांचे के पीछे की तरफ बढ़ रहे थे।

मेरा कैमरा जैसे ही उन्हें फ्रेम में ले पाता एक मजबूत और कठोर हाथ ने लेंस को ढंक दिया और फ़ोटो न लेने की सख्त हिदायत दी। उसकी आँखों में आंख डालते ही मेरी रूह कांप उठी। अचानक उसकी आंखों में चार लाख की भीड़ का एक भयावह रूप दिखाई दिया। मेरे पास सुबह 6 बजे से अब तक की काफी महत्वपूर्ण तस्वीरे थीं जिसे सुरक्षित और डेडलाइन के भीतर इलाहाबाद अपने NIP अमृत प्रभात दफ्तर तक पहुंचाना था। मैंने बिना देरी किये ऊपर छत की सीढ़ियों की ओर रुख किया। अद्भुत नज़ारा था, बैकग्राउंड में लाखों की भीड़ और सामने मंच पर दिग्गज नेताओं का जमावडा। कुछ तस्वीरें उतार पाया तभी भीड़ में हलचल मच गयी, ढांचे के पास कुछ अप्रत्याशित हो रहा है और मैं मंच छोड़ नीचे भागा।

सुबह के 11 बजकर 50 मिनट के करीब मैं विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी ढांचे के ठीक पीछे दस फुट ऊंची बैरिकेटिंग के पीछे पहुंचा। जो दृश्य मेरे सामने था वह अत्यंत भयावह और पत्रकारिता के पेशे की दृष्टि से अविस्मरणीय।पता नही क्यों पिछले पांच दिनों से अनुशासित और नियंत्रित कारसेवक अभी बेहद आक्रामक, अराजक और हिंसक होने लगे। विशाल, बहुत ऊंचे और मजबूत विवादित ढांचे के चारों तरफ लगी बेहद मजबूत बैरिकेटिंग कारसेवकों के सैलाब से माचिस की तीली की तरह ढहने लगी। दस बीस करके धीरे-धीरे सैंकड़ों कारसेवक तीनों गुम्बदों पर चढ़ने में सफल हो गए। जो औजार कुछ देर पहले कंट्रोल रूम से निकाले गए थे वो कहर बनकर ढांचे पर टूट पड़े।

चारों तरफ अफरातफरी धूल के गुबार के बीच हजारों की संख्या में मुस्तैद पुलिस फ़ोर्स शांत और अविचल अपनी जगह या तो खड़ी थी या कारसेवक उन्हें धकिया कर आगे बढ़ रहे थे। पुलिस के wachtower जमींदोज होने लगे और सब कुछ होते हुए भी पुलिस अप्रत्याशित रूप से चुपचाप सबकुछ देख रही थी। मैं दौड़ते-हांफते दुनिया को हिला देने वाले इन दृश्यों को कैमरे में कैद करता ढांचे के निकट बढ़ता रहा। अचानक उन्मादी भीड़ का एक झुंड कैमरा देखते ही मेरे ऊपर टूट पड़ा। उन्हें डर इस बात का था कि यही तस्वीरें कही आगे चलकर उनके लिए मुसीबत ना खड़ी कर दें। खैर लात, घूंसे, डंडे और कुछ साधू चिमटे से मुझे पीटने लगे। उन्हें देख भीड़ से कुछ और लोग मेरी ‘पूजा’ करने लगे।
मैं उन्हें बार-बार ये बताना चाहा कि प्रेस से हूँ, गले में लटका प्रेस कार्ड और विहिप द्वारा पत्रकारों को अनिवार्य रूप से जारी प्रेस कार्ड दिखाता, लेकन वो कुछ देखना सुनना नहीं चाहते थे। कुछ देर प्रतिरोध के बाद मेरा शरीर भीड़ के हवाले हो गया।

दोपहर के करीब 12 बजकर 20 मिनट हो रहे होंगे। कारसेवकों की भीड़ किसी हालत में मुझे छोड़ने को तैयार नहीं थी। इस बीच कुछ उन्मादी युवक मेरी धार्मिक पहचान करने में जुट गए। खैर जब उन्हें यकीन हो चला कि मैं उन्हीं की जमात से ताल्लुक रखता हूं तो वो मुझे छोड़ कैमरे पर टूट पड़े। इस दौरान कैमरे की बेल्ट से गले में फांसी की स्थिति होने लगी तो मैंने अन्गूठा डालकर बेल्ट अलग कर दिया। मेरी हलक में अटकी सांस तो चलने लगी लेकिन कैमरा भीड़ में गुम हो गया। सब कुछ बड़ी तेजी से घटित हुआ। पुलिस पास ही खड़ी थी लेकिन उन्होंने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं की। तभी एक युवा कारसेवक जो देखने में विहिप कार्यकर्त्ता जैसा था हाफ pant चौड़ी बेल्ट और बिल्ला लगाये शायद वहां ड्यूटी पर तैनात रहा होगा, हाथ में चाकू लेकर कूद पड़ा और चाकू चारों तरफ नचाते हुए मुझे हिंसक भीड़ से अलग कर दिया। उसने कहा- तुम इलाहाबाद से हो, भागो यहाँ से। मैंने हिम्मत कर उससे कहा- लोग मेरा कैमरा छीन ले गए वो बोला रुको, और तेजी से भीड़ में भागा और एक कैमरा लेकर तुरंत वापस लौटा। उसने कान में कहा इसे छिपा कर भागो और फोटो जरूर छापना। मैं जान बचाकर पीछे बैरिकैटिंग से बाहर निकलने को मुड़ा लेकिन संकरे गेट से भीड़ का सैलाब अन्दर आने की जद्दोजेहद में था। मैं एक पुलिस वाले की मदद से बैरिकेटिंग फांदकर खतरे के क्षेत्र से बाहर आ गया। कैमरा जैकेट के अन्दर छिपा लिया था।

पत्रकार होने की सारी निशानी मसलन प्रेस पास आदि अंदर कर लिया और वापस भाग रहे कारसेवकों के झुण्ड में उनकी नक़ल करते हुए हाथ में मैंने भी “बाबरी विध्वंस” की एक ईंट हाथ में उठा ली और “जय श्रीराम हो गया काम” चिल्लाते हुए (जो काम मैंने एक पत्रकार होने के नाते कभी नहीं किया, लेकिन जान बचाने के लिए करना पड़ा) पास स्थित मानस भवन जहां पत्रकारों और टीवी चैनल्स को कवरेज के लिए जगह दी गयी थी, उस तरफ भागा। पिटाई से पूरा शरीर आग के गोले की तरह जल रहा था। नाजुक अंग तलाशी के दौरान असहनीय पीड़ा दे गए थे। मैंने सोचा चलकर पत्रकार साथियों से शिकायत करता हूँ। लेकिन मानस भवन में पिटे पत्रकारों की चीख-पुकार देखकर लगा खतरा अभी टला नहीं था।


एसके यादव। पेशे से फोटो जर्नलिस्ट, 3 दशक से ज्यादा का मीडिया में काम करने का अनुभव । 6 दिसंबर 1992 की ऐतिहासिक घटना के प्रत्यक्षदर्शी। दिन दिनों इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मीडिया स्टडीज डिपॉर्टमेंट में छात्रों को फोटो पत्रकार बनाने का हुनर सिखा रहे हैं।