तेरा जुल्मों कौ हिसाब चुकौंल एक दिन…

-बी डी असनोड़ा की रिपोर्ट

नरेंद्र सिंह नेगी। उनकी आवाज़ में है असर का जादू।
नरेंद्र सिंह नेगी। उनकी आवाज़ में है असर का जादू।

फ्रांस के एक मशहूर लेखक ज्यां पॉल सार्त्र को 1964 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई, लेकिन उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार को ‘आलू का थैला’ कह कर ठुकरा दिया। शायद वो इस पुरस्कार की राजनीति से खुश नहीं रहे होंगे। सदी बदल गयी, लेकिन पुरस्कारों को लेकर सोच अभी तक नहीं बदली। भारत में तो पुरस्कार और सम्मान ‘अंधा बांटे रेवड़ी’ की तरह हैं। जो सत्ता-प्रतिष्ठान के जितने नजदीक, उसे उतनी जल्दी और उतने ही ज्यादा पुरस्कार मिलने की गारंटी है।

जिसने पहाड़ की संस्कृति के लिए अपना पूरा जीवन दे दिया। अपने गीत ‘नी होंणा, नि होंणा रे भैरों, देवि-देवतोंल दैणा रे भैंरों बागी-बोग्याटाओं काटि के’ से बलि प्रथा को खत्म करने का आह्वान किया। पर्यावरण बचाने के लिए ‘ना काटा तौ डांल्यों, तौ डाल्यों ना काटा भुलो, डाल्यों ना काटा’ गीत के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। पहाड़ से होते पलायन पर उनके गीत से आंखों में आंसू आ जाते हैं। हम बात उत्तराखंड के उस कलाकार की कर रहे हैं जो किसी सम्मान या पुरस्कार का मोहताज नहीं। जनता का प्यार ही उसके लिए सबसे बड़ा सम्मान है। वो नाम पहाड़ की वादियों में गूंजता है- नरेंद्र सिंह नेगी। नेगीजी के लफ़्ज़ों में- “मुझे कोई सरकारी पुरस्कार नहीं चाहिए, जनता मेरे गीतों को सुनती है और सराहती है वही मेरा असली पुरस्कार है।

नरेंद्र सिंह नेगी ने पहाड़ की संस्कृति को अपने गीतों से समृद्ध किया है, उसकी चेतना का नया विस्तार दिया है। अपने गीतों के जरिए उन्होंने अंधविश्वास और कुरीतियां दूर करने का संदेश दिया। उन्हीं में से एक कुरीति है मंदिरों में पशु बलि प्रथा। उत्तराखंड में ये अब करीब-करीब बंद हो गयी है। नेगी जी ने अपने गीत- नी होंणा, नि होंणा रे भैरों, देवि-देवतोंल दैणा रे भैंरों बागी-बोग्याटाओं काटि के- से बलि प्रथा को खत्म करने का आह्वान किया। इस गीत के भाव कुछ ऐसे हैं- ‘भगवान मंदिर में भैंसे और बकरों की बलि से खुश नहीं होते हैं। भगवान मंदिर में खून-खराबे से खुश नहीं होते। भगवान को रुपया-पैसा और सोना चांदी नहीं चाहिये। भगवान को श्रद्धा से हाथ जोड़ दो, वो खुश हो जाते हैं। जैसे भगवान ने इंसान को बनाया है, वैसे ही जानवरों को बनाया है। भगवान की ही रचना को तुम उसके मंदिर में काट दोगे तो वो कैसे खुश हो सकते हैं. इसलिये मंदिर में पशु बलि बंद करो.’ इस गीत का शानदार संदेश गया। लोग मंदिरों में पशु बलि बंद करने को राजी हुए।

पर्यावरण बचाने को उनका गीत-ना काटा तौ डांल्यों, तौ डाल्यों ना काटा भुलो, डाल्यों ना काटा काफी मशहूर हुआ। गीत के माध्यम से कहा गया है कि पेड़ों को मत काटो। पेड़ कटेंगे तो मिट्टी बहेगी। मिट्टी बहेगी तो न तो घर रहेंगे और न ही खेत-खलिहान ही बचेंगे। फिर कहां रहोगे और क्या खाओगे। पहाड़ से होते पलायन पर नरेंद्र सिंह नेगी का गीत आंखों में आंसू ला देता है- कख लगाणि छ्वीं, कैमा लगाणि छ्वीं, ये पहाड़ै कि, कुमौं-गढ़वालै कि। इस गीत में कहा गया है कि…खाली पड़े घरों का दर्द किसे सुनायें। खाली घरों, प्यासे बर्तनों, मैदान की ओर बहते लोगों की और खिसकते जंगलों-पहाड़ों की बात किसे कहें।

नरेंद्र सिंह नेगी- संगीत साधक जो छेड़ देता है संग्राम के सुर।
नरेंद्र सिंह नेगी- संगीत साधक जो छेड़ देता है संग्राम के सुर।

उत्तराखंड आंदोलन में चारों तरफ नरेंद्र सिंह नेगी के ही गीत गूंजते थे। इन गीतों ने आंदोलनकारियों में ऐसा जोश भरा कि इसकी परिणति अलग राज्य के रूप में सामने आयी। उस समय पहाड़ की फिजाओं के साथ ही दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, मुंबई और जहां भी उत्तराखंडी रहते थे यही गीत गूंजते थे- माथि पहाड़ बटि, निस गंगाड़ बटि, स्कूल-दफ्तर, गौं बजार बटि, हिटणा लग्या छन, रुकणि को लगणू, बाट भर्यां छन, सड़कूं मा जग नि. भैजी कख जाणा छा तुम लोग। उत्तराखंड आंदोलन में एक और आंदोलन गीत था… उठा जागा उत्तराखंडियों, सौं उठाणों वक्त ऐगो। जब तत्कालीन यूपी सरकार ने आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग किया तो नेगीजी के सुरों से फूटा-तेरा जुल्मों कौ हिसाब चुकौंल एक दिन। ऐसे कई गीत हैं जिन्होंने लोगों में जोश भरा, टूटे दिल को सांत्वना दी और मिलजुलकर रहने की सीख दी।
अलग राज्य बनने के बाद भी नरेंद्र सिंह नेगी के गीत लोगों को जगाते रहे। एक मुख्यमंत्री की फिजूलखर्ची और अय्याशी के चर्चे जब आम होने लगे तो ‘नौ-छमी नारैणा’ के रूप में सुर फूटे। नतीजा चुनाव में उनकी पार्टी को हार झेलनी पड़ी। एक और मुख्यमंत्री के समय जब भ्रष्टाचार की चर्चा आम जन की जुबान पर थी तो ‘अब कतगा खैल्यो’ के रूप में गीत सामने आया। नतीजा उस सीएम को भी गद्दी छोड़नी पड़ी। दरअसल नरेंद्र सिंह नेगी कभी भी सत्ताधीशों की चापलूसी या जी-हुजूरी में नहीं लगे। नहीं तो सरकारी सम्मानों की उनके ऊपर भी बरसात होती। उन्होंने जो देखा उसे अपने गीतों में ढाला। अब इससे सरकारों, मुख्यमंत्रियों या अधिकारियों को दिक्कत होती है तो इसमें ये गायक क्या करे?


उत्तराखंड के गैरसैंण के निवासी बी डी असनोड़ा । लंबे अरसे से वो गांव से जुड़े मुद्दों को अलग-अलग मंचों से उठाते रहे हैं।


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