काश! कोई सुन ले दिव्यांश की चीखें

धीरेंद्र पुंडीर

dhirendra pundir writes on divyansh death
दिल्ली के एक निजी स्कूल में दिव्यांश की मौत।

ये दिव्यांश की तस्वीर है। एक परिवार को छोड़ दें तो बाकि सब के लिए एक तस्वीर। कुछ देर में अखबार रद्दी हो जाएंगा। टीवी पर तो तस्वीर उतर चुकी होगी। और कुछ ही वक़्त बाद ये तस्वीर दुनिया के लिए गुम हो जाएगी। लेकिन एक मां के लिए एक तस्वीर नहीं है। उसकी आंखों का तारा है। उसकी कोख के नौ महीने है। उसके सपनों की मंजिल है। एक बाप के लिए उसका सपना। हौले से आंख के किनारों में भर आया हुआ सपना। उसकी जिंदगी के हर रंग को उकेरती हुई तस्वीर। बाप का ऐसा सपना, जब बाप दुनिया छोड़े तो भी चलता रहे। एक छोटी बहन के लिए मां-बाप के बाद सबसे बड़ा प्यार और दुलार इस तस्वीर में है। ये तस्वीर सिर्फ एक फोटो प्रिट नहीं जिदगी है उनकी। लेकिन अब ये तस्वीर कभी बड़ी नहीं हो पाएगी, दुनिया की निगाह में। और एक मां और परिवार की निगाह में इतनी बड़ी होती चली जाएंगी कि उसकी जिंदगी के वजूद पर तारी हो जाएंगी।

divyansh poem

दिव्यांश नाम यही रखा था। कितने लोगों से पूछ कर ,मंदिर के दरो-दीवार पर चूमकर, मां-बाप ने अपने सपने को ये नाम दिया होगा। अपना पेट काटकर भी एक ऐसे स्कूल में पढाया जिसके एड से बौनों (मीडियावालों) के घरों में रोटियां बनती हैं। और दिव्यांश मर गया स्कूल के टैंक में डूबकर।

स्कूल में कुछ नहीं बदलेगा। स्कूल स्टाफ के घर में पार्टियों की रौनक में किसी बल्ब की रोशनी कम नहीं होगी। स्कूल का कुछ नहीं बिगड़ेगा। ऐसे दस्तावेजों को कानून बना कर रख दिया गया, जिसमें ये पता ही नहीं चलता कि कौन जिम्मेदार है। इस मौत का,  इस सपने का, इस विश्वास के टूटने का कौन जिम्मेदार है, ये कभी पता नहीं चल पाएंगा। ऐसे हादसों की रिपोर्ट अख़बारों में पढने के कुछ मिनट बाद अपनी चाय के कप की तरफ हाथ बढ़ाते हुए बेटे को चूम लेंगे लोग, मेरी तरह। एक पल के लिए सामने खड़े अपने मासूम के बारे में सोचने भर से दिल कांप उठेगा।

बच्चे तो रोज स्कूल जाते हैं। स्कूल को लाखों की फीस मां-बाप चुकाते हैं। स्कूल के बोर्ड, बैनर और महंगे इश्तिहार में सारे सपने बिकते हैं। हम लोग मेहनत से कमाई पाई-पाई बच्चें के भविष्य के नाम पर कुर्बान कर देते हैं। दरअसल इस देश ने कभी समरथ को दोष नहीं गुसाईं से बाहर आने की कोशिश ही नहीं की। क्या स्कूल के प्रिंसीपल को लापरवाही से हुई मौत का जिम्मेदार माना जा सकता है?

mcd child drownये दूसरा बच्चा है, तीन दिनों में जो स्कूल में डूब कर मरा है। इससे पहले नजफगढ़ के एक स्कूल में इतना ही बड़ा बच्चा सेप्टिक टैंक में डूबकर दम तोड़ गया। उसके मां-बाप की हैसियत इतनी नहीं थी कि उसकी मौत पर स्यापा मचता। वो स्कूल एमसीडी का था। लिहाजा स्कूल के किसी अधिकारी की बाईट्स चलाने की जरूरत महसूस नहीं की गई। इसीलिए उसका फोटो भी बहुत ज्यादा जगह नहीं पा सका।

‘सरकार’ नाम की चिड़िया हमेशा की तरह अपने पंख फड़फड़ाती है, तो उसने जांच के आदेश दे दिये हैं। जांच होगी। जांच में ‘चिड़िया’ उड़ जाएगी या बैठ जाएगी कौन जाने? किसी भी कमजोर मां-बाप को इतनी ताकत नहीं दी है इस कानून ने कि उस प्रिसिंपल और मैनेजमेंट को सलाखों के पीछे देख सके जो ऐसी मौतों में लापरवाही का गुनहगार है। लूट और धोखे से बने हुए शिक्षण संस्थाओं से सिर्फ वो लोग निकल रहे हैं, (हमारे जैसे) जो सिर्फ अपनों के मरने पर रोते हैं। बाकि के मरने पर ख़बरों में पढ़ कर अपनी ड्यूटी के समय का खाली वक़्त गुजारने के लिए चर्चा करते हैं।

कई बार लगता है कि जंगल में घूम रहे हैं। हम सिर्फ अपने बच्चों को गले लगाकर रात गुजारते हैं। दिन भर शिकार कर वापस बच्चों की पास आने की जुगत में लगे हुए हैं। लेकिन ख्याल रखना दोस्तों, जंगल में कभी भी किसी का दिन आ सकता है। मौत कहीं से भी झपट्टा मार सकती है और रोने की आवाज़ कानों में नहीं हमारे मुंह से भी आ सकती है।

dhirendra pundhir


धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंडीर की अपनी विशिष्ट पहचान है। 


धीरेंद्र पुंडीर की दो कविताएं… पढ़ने के लिए क्लिक करें