इस ‘घाव’ को अब पक ही जाने दें!

सचिन कुमार जैन

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फोटो-सचिन कुमार जैन के फेसबुक वॉल से

मैं दिल से चाहता हूँ कि बिहार में उनकी जबरदस्त जीत (विजय नहीं) हो। मैं चाहता हूँ कि वे मांस पर प्रतिबन्ध लगा दें। मैं चाहता हूँ कि वे समाज संकुचित हिन्दुकरण-मुस्लिमकरण की और कोशिशें करें। मैं चाहता हूँ कि वे किसानों के प्रति वैसे ही बनें रहें, जैसे वे हैं। मैं चाहता हूँ कि वे बड़ी पूँजीपति कंपनियों के साथ खड़े हों। मैं चाहता हूँ कि वे दाल, प्याज के दाम राष्ट्रहित में और बढ़ाएँ। मैं चाहता हूँ कि वे सब्सिडी बचाने के लिए तत्काल गरीबों को मिट्टी का तेल देना बंद कर दें। मैं चाहता हूँ कि असहमत होने वाले हर व्यक्ति और हर समूह को वे कारागार में डाल दें। मैं चाहता हूँ कि सहिष्णुता और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने वाले हर व्यक्ति के लिए वे फांसी की सज़ा मुक़र्रर कर दें। मैं चाहता हूँ कि वे ही तय करे कि लड़कियां कब घर से बाहर निकलेंगी और कौन से कपड़े पहनेंगी। अब फिल्म की हर स्क्रिप्ट और अभिनेता का हर वाक्य वे ही जांचें और तय करें कि क्या प्रसारित होगा। जिस जमीन को वे चाहें, जैसे चाहें, अधिगृहित कर लें!

फोटो-सचिन कुमार जैन के फेसबुक वॉल से
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सिद्धांत यह है कि जब तक घाव पूरी तरह से पक नहीं जाता है, उसका मवाद निकाला नहीं जा सकता। यदि घाव के बिना पके मवाद निकालने की कोशिश करेंगे तो वह भीतर ही भीतर और फैलेगा। हमारा समाज उम्मीदों का कारखाना है; पैदा करता ही जाता है और सोचता है कि दिल्ली, भोपाल, बेंगलुरु, मुंबई, लखनऊ से इन्हें पूरा कर दिया जाएगा। वह नहीं सोचता कि उसके निद्रा में लीन हो जाने से सत्ता के ये सारे केंद्र निरंकुश हो जायेंगे। सबसे दुखद वक्त यह इसलिए भी है क्योंकि अब अपन खुद यानी तथाकथित समाज अपनी भूमिका, अपने मूल्य, अपनी जिम्मेदारी तय नहीं करना चाहते। हम चाहने लगे हैं कि सरकार ही कोई नियम बना दे। ज्यादा हुआ तो अदालत की चौखट पर पंहुच जायेंगे। इसके बाद मीडिया अपना झंडा लहराने लगता है। वैसे अंतिम आहुति कट्टरपंथी संगठन देते हैं। इनसे जो नियम और कायदे निकलते हैं, वे समाज के चरित्र और उसके स्वभाव के अनुरूप कम ही होते हैं; बस इसीलिए टकराव बढ़ने लगता है। ज्यादातर मंचों को रिश्वत, लालच, वासना, पद और प्रभाव से उनके निर्णयों-नियमों-आदेशों को साध लिया जाता है। और आखिर में जो भी नियम या पहल सामने आती है, वह समाज के पक्ष में नहीं होती।

जरा थोड़ी देर के लिए शांत बैठिये और सोचिये कि ऐसे कौन से नियम हैं जो समाज ने अपने लिए खुद बनाये हैं और कितने नियम सरकार-अदालतों ने बनाये हैं और क्यों? ऐसा क्यों है कि भारत में भी एक तबका अंगारों की थाल लिए चल रहा है और जो भी असहमति के लिए मुंह खोलता है, उसके मुंह में वो ख़म ठोंक कर अंगारे भर देता है! जिन लोगों ने एक दशक में कुपोषण और दस्त के कारण मरने वाले 10 लाख बच्चों की मौतों पर त्यौरियाँ नहीं चढ़ाई, अचानक “बीफ” पर वे इतने ‘धार्मिक’ कैसे हो गए? क्या उनका धर्म उन्हें बच्चों की मौतों पर चुप रहना सिखाता है? ये वे हैं, जो बलात्कार के कारण खोजते हैं, पर स्त्री हकों पर उनके ख़िलाफ़ खड़े होते हैं-यह कह कर कि तंग कपड़े पहनेंगी तो बलात्कार तो होगा ही! जब धर्म में से मूल्य निकाल दिए जाते हैं, तब यौन-कुंठा बाहर झाँकने लगती है, जो आध्यात्म-विहीन धर्म के राजनीतिक ठेकेदारों में झाँक रही है।

फोटो-सचिन कुमार जैन के फेसबुक वॉल से
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हमारा समाज मध्य-मार्गी से आगे बढ़ कर मध्यम-वर्गीय हो गया। कुछ करना तो दूर, वह कुछ बोलना और सोचना भी नहीं चाहता। बस उसका फ्रिज चलना चाहिए, जिसमें शरबत, सब्जी की पैकेटबंद तरी रखी होती है। उसका डिश एंटीना और हाई डेफिनीशन टेलीविज़न चलना चाहिए। ज़िंदगी, रिश्तों और समाज की परिभाषा को तिलांजलि देकर उसने इन्हें जिंदगी की ऊँची परिभाषा (एचडी) बनाया है। वह विद्युत प्रवाह के बीच मोमबत्ती की रोशनी में भोजन करने का सपना देखता है। उसकी कॉलोनी के आसपास कोई झुग्गी नहीं होनी चाहिए। उसके घर में काम करने के लिए मजदूर तो आयें, पर उनका घर उसके घर से बहुत दूर होना चाहिए। मजदूर बहुत दूर से जब आये, तो बंगले वाले उससे मोल-भाव करें कि हम हर रोज के 10 घंटे के काम के 100 रूपए देंगे। काम करना हो तो करो, वरना मत करो। मजदूर कहता है कि मुझे यहाँ तक आने में ही 20 रूपए खर्च करना पड़े है। तब हमारे विकसित समाज का व्यक्ति कहता है- बस से क्यों आये, पैदल आ जाते।

फोटो-आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से
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वृद्धि दर से पैदा होने वाला समाज किसान से कोई सरोकार नहीं रखता। उसे तो ब्रांडेड आटा खरीदने का दंभ है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि गेहूं तो किसान ने ही उगाया है। जिस चमकते घर में वह शान से प्रवेश करता है, उसे जिन मजदूरों ने बनाया, वह समाज उसी को अपना उपनिवेश बना लेता है। कार मैं बैठकर दन्न से निकल जाने वाला व्यक्ति सब्जी मंडी में बूढी महिला से कहता है कि धनिया के लिए हम तो 15 रूपए नहीं 10 रूपए देंगे। उसकी औकात नहीं है कि वह माल में बिकने वाले धनिया का मोल-भाव कर ले। यह मध्यमवर्ग स्वतंत्रता के बाद के उस विकास की पैदाईश है, जिसे हमने अपनी सामाजिक-आर्थिक ताकतों (कृषि, कुटीर उद्योगों, हस्त शिल्प, वन सम्पदा, जल सम्पदा और आध्यात्म) को बेच कर खरीदा है। उदारीकरण ने समाज और सरकार को सबसे ज्यादा अन-उदार बनाया है। वृद्धि के राक्षस ने अर्थव्यवस्था को पूँजीपतियों के लिए तो खोला, किन्तु किसान, मजदूर, कुम्हार, जुलाहे, मछुआरे, लौहपीटे के लिए बंद कर दिया।

फोटो-आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से
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वृद्धि का जुलाब निगलने वाले समाज को लगता है कि उसका पेट आसानी से साफ़ हो रहा है, किन्तु वह यह नहीं जानता कि उसे भ्रम में रखना भी एक सोची समझी नीति है। किसान की आत्महत्या पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा, पर जब प्याज 80 रूपए और दाल 200 रूपए होने लगी, तब बात थोड़ी समझ में आई। ऐसा नहीं है कि अब भी वह किसान के पक्ष में है। वे अब भी कहते हैं कि सरकार को कुछ करना चाहिए! सच तो यह है कि अब सरकार को कुछ नहीं करना चाहिए। वे किसान को तय करने दें कि वह कौन सा बीज और खाद इस्तेमाल करना चाहता है। किसान को अब अपने उत्पाद की कीमत तय करने दें। किसान को बिचौलियों (सरकारी और बाजारी दोनों) से मुक्त होने का अधिकार दे दें। उन्हें सरकार से यह कहने दें कि यदि गेहूं, भिन्डी, दाल, चावल, हल्दी, मूंगफली चाहिए, तो तय कीमत पर बिजली दें। जिस दिन किसान अपनी फसल की कीमत तय करने लगेगा, उस दिन वृद्धि का जुलाब अपना असर बंद कर देगा।

फोटो-आशीष सागर दीक्षित के फेसबुक वॉल से
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जिस समाज को लगता है कि खाना वातानुकूलित कारखाने में बनता है, उसके दिमाग को ठोक-पीट कर ही ठीक करने की जरूरत है। वास्तव में उसे इससे कोई मतलब नहीं है कि उसके घर से थोड़ी दूर किस तरह की आग जल रही है। अपने भव्य आवास में मौसम के विपरीत हवा फेंकने वाली मशीन लगा लेता है, और सोच लेता है कि मौसम सही हो गया। सच यह है कि जमीन से लेकर बर्फ के पहाड़ों तक सब कुछ जल रहा होता है । एक वह अपनी कॉलोनी की चारों तरफ की सड़कों पर लोहे के बड़े गेट लगवा देता है और वहाँ एक बन्दूकधारी सुरक्षाकर्मी तैनात कर देता है, और सोचता है कि अब वह सुरक्षित है। उस शिक्षित समाज को यह भान नहीं है कि गैर-बराबरी और शोषण के पत्थरों के टकराने से जो चिंगारी निकलती है, वह बन्दूक की आग से कहीं ज्यादा बड़ा धमाका करती है।


sachin kumar jainसचिन कुमार जैन। विकास संवाद नाम की स्वयंसेवी संस्था से जुड़े हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर स्वतंत्र चिंतन और अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाने का माद्दा रखते हैं।


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3 thoughts on “इस ‘घाव’ को अब पक ही जाने दें!

  1. सत्ता और उसकी निरंकुशता एक पुरानी समस्या है। नया यह है कि सत्ता में शामिल और सत्ता में बैठे लोग इस बार कुछ और नहीं सुनना चाहते। इसका दंश अंततः सभी भोगेंगे। निंदक को नियरे रखने वाले विचार कुछ दिनों के लिए त्याग दिए गए लगते हैं। जो हाय तोबा मची है, दोष उनका ही है। समाज निर्माण न करने और फिर जनमत निर्माण में विफल लोगों को लोकतंत्र में प्राप्त आखिरी विकल्प, विरोध का अवसर मिला है। यह मरणोपरांत विलाप ही साबित हो रहा है।

  2. आशीष सागर-तस्वीरों को शब्दों ने और पुख्ता कर दिया कि जिंदगी ऐसे भी चलती है मगर कब तक ?

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